"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 14वां श्लोक"
"अधिकारिनिरूपण अध्याय"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अधिकारिणमाशास्ते फलसिद्धिर्विशेषतः ।
उपाया देशकालाद्याः सन्त्यस्मिन्सहकारिणः ॥ १४ ॥
अर्थ:-विशेषतः अधिकारी को ही फल-सिद्धि होती है; देश, काल आदि उपाय भी उसमें सहायक अवश्य होते हैं।
इस श्लोक में यह स्पष्ट किया गया है कि किसी भी आध्यात्मिक साधना या आत्मज्ञान की सिद्धि मुख्यतः अधिकारी पर निर्भर करती है। "अधिकारिणम् आशास्ते फलसिद्धिः विशेषतः" — अर्थात् जिस साधक में आत्मज्ञान के लिए आवश्यक योग्यता (अधिकार) होती है, वही व्यक्ति फल की सिद्धि को प्राप्त करता है। यहाँ "अधिकारी" का अर्थ केवल एक विद्यार्थी से नहीं, बल्कि उस साधक से है जिसमें विवेक, वैराग्य, शम, दम, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधि और मुक्तिमन्यता जैसे गुण विकसित हो चुके हैं। बिना अधिकारीता के केवल उपदेश, ग्रंथ-पठन, तीर्थाटन, या बाह्याचारों से आत्मसाक्षात्कार संभव नहीं होता।
दूसरी पंक्ति में कहा गया है — "उपाया देशकालाद्याः सन्त्यस्मिन्सहकारिणः" — अर्थात् देश, काल, साधन, संगति, शास्त्र, गुरु आदि भी फल-सिद्धि में सहायक होते हैं, किंतु ये सब गौण सहायक हैं; मुख्य कारण अधिकारी की आंतरिक तैयारी है। जैसे एक बीज को विकसित होने के लिए उपयुक्त भूमि, जलवायु, जल, और सूर्यप्रकाश चाहिए होता है, वैसे ही आत्मसाक्षात्कार के लिए भी उपयुक्त वातावरण सहायक होता है, लेकिन यदि बीज ही सड़ा हुआ है या अंकुरण योग्य नहीं है, तो सबसे अनुकूल परिस्थितियों में भी वह विकसित नहीं हो सकता। इसी प्रकार, यदि साधक में अधिकारीता नहीं है, तो श्रेष्ठ गुरु, उत्तम स्थान और उत्तम काल होने पर भी उसे आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं होगी।
उदाहरण के लिए, महर्षि शंकराचार्य ने कहा है कि वेदांत केवल उस साधक के लिए फलदायक है जो अधिकारी है। जिस प्रकार औषधि केवल उसी रोगी को लाभ देती है जिसकी प्रकृति और रोग उस औषधि के अनुकूल है, उसी प्रकार आत्मज्ञान की औषधि भी उसी को लाभ देती है जिसमें श्रद्धा, मनोनिग्रह, इन्द्रियनिग्रह, वैराग्य, और विवेक जैसे गुण हों।
वास्तव में, अधिकारी वह होता है जो सत्य की तीव्र पिपासा रखता है और अपने संपूर्ण जीवन को आत्मसाक्षात्कार के लिए समर्पित करता है। वह संसार की वस्तुओं में अनित्यता और दुःख का दर्शन कर चुका होता है, और अब केवल शाश्वत सत्य की खोज में तत्पर होता है। जब ऐसा अधिकारी किसी सद्गुरु के पास पहुँचता है, शास्त्र का श्रवण करता है, और उस पर मनन तथा निदिध्यासन करता है, तब फल सिद्ध होता है।
इसलिए शास्त्र यह उपदेश देता है कि आत्मज्ञान के लिए केवल बाह्य कर्म या बाह्य परिस्थिति पर्याप्त नहीं है। अंतःकरण की शुद्धि, तीव्र मुक्ति-इच्छा और आध्यात्मिक अभ्यास ही अधिकारीता के लक्षण हैं। जब यह अधिकारीता प्राप्त होती है, तब देश, काल, गुरु, शास्त्र आदि सारे साधन फलप्रद हो जाते हैं। इस श्लोक के माध्यम से हमें यह सिखाया जाता है कि आत्मज्ञान की यात्रा बाहर से नहीं, भीतर से प्रारंभ होती है — और वह तभी सार्थक होती है जब साधक स्वयं भीतर से इसके लिए तैयार हो।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!