"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 15वां श्लोक"
"अधिकारिनिरूपण अध्याय"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अतो विचारः कर्तव्यो जिज्ञासोरात्मवस्तुनः ।
समासाद्य दयासिन्धुं गुरुं ब्रह्मविदुत्तमम् ॥ १५ ॥
अर्थ:-अतः ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ दया सागर गुरुदेव की शरण में जाकर जिज्ञासु को आत्मतत्त्व का विचार करना चाहिये।
‘अतो विचारः कर्तव्यो जिज्ञासोरात्मवस्तुनः’ — इस श्लोक का अभिप्राय है कि जो व्यक्ति आत्मवस्तु को जानने की तीव्र इच्छा रखता है, उसे अब विचार करना चाहिए। यह विचार केवल बौद्धिक तर्क या अध्ययन तक सीमित नहीं होता, बल्कि यह गम्भीर आत्मचिन्तन और आत्मावलोकन की एक साधना होती है। आत्मवस्तु का विचार करने का अर्थ है — अपने जीवन के मूल उद्देश्य, अपने वास्तविक स्वरूप और इस ब्रह्मांड की अंतिम सत्यता पर मनन करना। जब मनुष्य संसार की असारता को समझता है और भीतर से एक गहरी पुकार अनुभव करता है कि 'मैं कौन हूँ?', तभी वह जिज्ञासु कहलाता है। यही जिज्ञासा उसे बाह्य विषयों से हटाकर आत्मवस्तु की ओर उन्मुख करती है।
किन्तु यह विचार स्वयं से करना कठिन होता है, क्योंकि मन में अनेक प्रकार की भ्रान्तियाँ, विक्षेप और पूर्वाग्रह होते हैं। इसलिए श्लोक के दूसरे चरण में कहा गया है — 'समासाद्य दयासिन्धुं गुरुं ब्रह्मविदुत्तमम्'। अर्थात्, उस जिज्ञासु को चाहिए कि वह एक ऐसे गुरुदेव की शरण ले जो दया के समुद्र हों और ब्रह्मविद्या में परम श्रेष्ठ हों। गुरु के बिना यह आत्मविचार सम्भव नहीं, क्योंकि गुरु ही वह सेतु हैं जो शिष्य को अज्ञान के तट से ज्ञान के तट तक पहुँचाते हैं। वे न केवल शास्त्रों के ज्ञाता होते हैं, अपितु स्वयं आत्मतत्त्व में स्थित रहते हैं। उनकी कृपा और मार्गदर्शन से ही जिज्ञासु शिष्य आत्मवस्तु का सही प्रकार से विचार कर सकता है।
यहाँ गुरु को ‘दयासिन्धु’ कहा गया है — इसका बहुत गहरा अर्थ है। दया केवल सहानुभूति नहीं है, बल्कि वह करुणा है जो गुरु को प्रेरित करती है कि वे शिष्य की आत्मिक उन्नति के लिए अपने अनुभव, ज्ञान और जीवन को अर्पित करें। ऐसे गुरु अपनी वाणी, दृष्टि और स्पर्श से भी शिष्य के भीतर की नींद को तोड़ते हैं और उसे आत्मस्मरण की ओर उन्मुख करते हैं। ब्रह्मविदुत्तम गुरु न केवल वेदों, उपनिषदों और ब्रह्मसूत्रों के ज्ञाता होते हैं, बल्कि उन्होंने आत्मा को प्रत्यक्ष अनुभव किया होता है। इसलिए उनका उपदेश केवल शब्द नहीं, बल्कि अनुभूति से युक्त जीवित सत्य होता है।
जिज्ञासु को चाहिए कि वह ऐसे गुरु की सेवा, श्रवण, मनन और निदिध्यासन के द्वारा आत्मवस्तु का विचार करे। यह विचार ही वह साधन है जिससे संसार रूपी अन्धकार दूर होता है और आत्मा के स्वरूप का प्रकाश होता है। जैसे दीपक की लौ अन्धकार को दूर करती है, वैसे ही आत्मविचार चित्त की अशुद्धियों और भ्रमों को नष्ट करता है। इस प्रकार यह श्लोक हमें आत्मबोध की दिशा में गुरु-शरण और गहन विचार की अनिवार्यता का उपदेश देता है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि जिज्ञासु के लिए अब और प्रतीक्षा करना उचित नहीं है — उसे तत्क्षण विचार में प्रवृत्त होना चाहिए, किन्तु यह तभी सम्भव है जब वह ऐसे ब्रह्मनिष्ठ, करुणामय गुरु की शरण ले जो उसे आत्मवस्तु की दिशा में सही मार्ग दिखा सकें। यही वेदांत का सार है और यही आत्मज्ञान की वास्तविक शुरुआत।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!