"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 16वां श्लोक"
"अधिकारिनिरूपण अध्याय"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
मेधावी पुरुषो विद्वानूहापोहविचक्षणः । अधिकार्यात्मविद्यायामुक्तलक्षणलक्षितः ॥ १६॥
अर्थ:- जो बुद्धिमान् हो, विद्वान् हो और तर्क-वितर्क में कुशल हो, ऐसे लक्षणों वाला पुरुष ही आत्म विद्या का अधिकारी होता है।
आत्मविद्या, जो कि समस्त वेदांत का सार है, केवल उसी व्यक्ति के लिए फलदायी होती है जो उसके योग्य है। उक्त श्लोक में ऐसे अधिकारी पुरुष के लक्षण बताए गए हैं। यह बताया गया है कि आत्मविद्या का अधिकारी कौन होता है — वह व्यक्ति जो मेधावी हो, विद्वान हो और ऊहापोह अर्थात तर्क-वितर्क की क्षमता से युक्त हो। इन गुणों के अभाव में आत्मविद्या का गहन रहस्य समझना कठिन हो जाता है, क्योंकि यह विद्या शब्दों से परे, अनुभव की वस्तु है, और उसकी दिशा में आगे बढ़ने के लिए विशेष अंतःशुद्धि, विवेक और तीव्र जिज्ञासा आवश्यक है।
सबसे पहले, "मेधावी" शब्द पर ध्यान देना चाहिए। मेधा का अर्थ है स्मरण शक्ति, ग्रहण क्षमता और गूढ़ बातों को आत्मसात करने की योग्यता। जो व्यक्ति सूक्ष्म विषयों को समझने और उनका चिंतन करने में सक्षम होता है, वही मेधावी कहलाता है। आत्मविद्या कोई बाह्य विज्ञान नहीं है, यह अत्यन्त गहन और सूक्ष्म ज्ञान है, जो वाणी और बुद्धि की सीमाओं के पार है। अतः इसकी ओर अग्रसर होने के लिए मेधावी होना अनिवार्य है, जिससे वह व्यक्ति शास्त्रों की जटिल व्याख्याओं और उपनिषदों के रहस्यमय सूत्रों को समझ सके।
दूसरा लक्षण है "विद्वान्" — अर्थात वह व्यक्ति जिसने शास्त्रों का विधिवत अध्ययन किया हो और उन्हें अपने जीवन में उतारने का प्रयास किया हो। केवल शास्त्रों का रट लेना पर्याप्त नहीं है; आत्मविद्या के अधिकारी को उनकी अंतर्निहित भावना और संकेत को समझने की शक्ति होनी चाहिए। विद्वत्ता का अर्थ यहां केवल पांडित्य नहीं है, अपितु वह गहराई है जो अनुभव से आती है और जो जिज्ञासु को आत्मसाक्षात्कार की दिशा में प्रेरित करती है।
तीसरा गुण है "ऊहापोहविचक्षणः" — अर्थात वह व्यक्ति जो तर्क और विचार द्वारा सत्य और असत्य का विवेक कर सके। आत्मविद्या में केवल अंधश्रद्धा या अनुकरण से कोई लाभ नहीं होता। यहां साधक को अपने स्वयं के अनुभव और तर्क की कसौटी पर सब कुछ परखना होता है। गुरु और शास्त्र के वचनों का समर्थन तो आवश्यक है, किंतु अंततः शुद्ध विचार और अनुभव की आवश्यकता होती है। ऐसा विवेकी पुरुष ही भ्रम से ऊपर उठकर आत्मसत्य की ओर बढ़ सकता है।
इस श्लोक में अंत में कहा गया है — "अधिकार्यात्मविद्यायामुक्तलक्षणलक्षितः", अर्थात उपर्युक्त गुणों से युक्त पुरुष ही आत्मविद्या का अधिकारी कहलाता है। यह अधिकारीत्व केवल जन्म, जाति, वंश या सामाजिक स्थिति से नहीं आता, अपितु यह अंतःकरण की शुद्धता, विवेक की तीव्रता, शास्त्रों के प्रति श्रद्धा और आत्मबोध की तीव्र इच्छा से उत्पन्न होता है। जब ये लक्षण किसी व्यक्ति में विद्यमान होते हैं, तभी वह आत्मविद्या को ग्रहण कर सकता है, अन्यथा यह रहस्य उसके लिए दुरूह बना रहता है।
इस प्रकार, आत्मविद्या कोई सामान्य शिक्षा नहीं है, जिसे कोई भी बिना तैयारी के प्राप्त कर सके। यह उन विरले पुरुषों का मार्ग है, जिनमें ऊपर बताए गए लक्षण प्रकट हुए हैं। इसलिए जिज्ञासु को पहले अपने अंतःकरण को तैयार करना चाहिए, मेधा, विद्वत्ता और विवेक को विकसित करना चाहिए, तब जाकर वह आत्मज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश का अधिकारी बनता है। यही अधिकारीत्व की मूल शर्त है जिसे शास्त्रों ने स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट किया है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!