"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 17वां श्लोक"
"अधिकारिनिरूपण अध्याय"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
विवेकिनो विरक्तस्य शमादिगुणशालिनः ।
मुमुक्षोरेव हि ब्रह्मजिज्ञासायोग्यता मता ॥ १७॥
अर्थ:-जो सदसद्विवेकी, वैराग्यवान्, शम-दमादि षट्सम्पत्तियुक्त और मुमुक्षु हो उसी में ब्रह्मजिज्ञासा की योग्यता मानी गयी है।
विवेक, वैराग्य, शमादि षट्सम्पत्तियाँ और मुमुक्षुत्व — ये चारों तत्व किसी जिज्ञासु को ब्रह्मविद्या के अध्ययन और आत्मसाक्षात्कार के लिए योग्य बनाते हैं। उपरोक्त श्लोक में यही बात स्पष्ट की गई है कि केवल वही व्यक्ति ब्रह्मजिज्ञासा के योग्य होता है, जिसमें ये चारों योग्यता-वाचक लक्षण विद्यमान हों। प्रथम योग्यता है विवेक, अर्थात् नित्य और अनित्य वस्तुओं में भेद करने की क्षमता। जो जानता है कि यह संसार क्षणिक और नाशवान है, और केवल ब्रह्म ही नित्य, शाश्वत और परम सत्य है, वही इस विवेक को प्राप्त करता है। यह विवेक ही साधक को आगे की योग्यता—वैराग्य की ओर ले जाता है।
वैराग्य अर्थात अनित्य भोग-वस्तुओं के प्रति पूर्ण उपरामता। जब साधक समझता है कि इन्द्रियसुख न तो स्थायी हैं और न ही आत्मा के आनन्द का कारण, तब वह उनके प्रति विरक्त होता है। यह वैराग्य केवल बाह्य विषयों से ही नहीं, अपितु स्वर्गादि लौकिक और पारलौकिक सुखों से भी होता है। ऐसा वैराग्य ही साधक को भीतर की ओर मोड़ता है, और वह चित्त की स्थिरता की साधना में प्रवृत्त होता है।
इसके पश्चात् तीसरी योग्यता आती है—शमादि षट्सम्पत्ति, जिसमें शम (चित्त की शान्ति), दम (इन्द्रिय-निग्रह), उपरति (बाह्य कर्मों से निवृत्ति), तितिक्षा (सहनशीलता), श्रद्धा (शास्त्र और गुरु वचनों में विश्वास), और समाधान (चित्त की एकाग्रता) सम्मिलित हैं। ये सभी गुण साधक को मानसिक स्थिरता और आत्मिक उन्नति के लिए आवश्यक साधन प्रदान करते हैं। शम और दम के बिना चित्त का संकल्प-विकल्प चलता रहेगा, जिससे आत्मविचार संभव नहीं होगा। श्रद्धा और समाधान के बिना साधक गहराई से गुरु और शास्त्रों के उपदेशों का ग्रहण नहीं कर पाएगा।
अंत में, चौथी और सर्वोच्च योग्यता है मुमुक्षुत्व — अर्थात् मोक्ष की तीव्र इच्छा। जब साधक संसार की असारता को भलीभाँति समझ चुका होता है और शान्त चित्त से आत्मबोध का मार्ग अपनाता है, तब उसमें यह उत्कट आकांक्षा उत्पन्न होती है कि "मैं इस बन्धन से मुक्त हो जाऊँ और अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करूँ।" यही मुमुक्षुत्व उसे सतत साधना में निरत रखता है। यदि यह इच्छा प्रबल न हो, तो साधक की अन्य सभी योग्यताएँ निष्क्रिय हो जाती हैं।
इस प्रकार इन चार साधन-चतुष्टय की पूर्णता ही किसी व्यक्ति को ब्रह्मविद्या के योग्य बनाती है। शास्त्रों में भी बार-बार यह प्रतिपादित किया गया है कि बिना इन योग्यताओं के आत्मज्ञान का प्रयास करना व्यर्थ होता है। अतः प्रत्येक जिज्ञासु को चाहिए कि वह पहले अपने भीतर इन गुणों का विकास करे, फिर ब्रह्म की जिज्ञासा करे — तभी उसका प्रयास सार्थक हो सकता है। यही इस श्लोक का मुख्य संदेश है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!