"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 19वां श्लोक"
"साधन-चतुष्टय अध्याय"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
आदौ नित्यानित्यवस्तुविवेकः इहामुत्रफलभोगविरागस्तदनन्तरम् शमादिषट्कसम्पत्तिर्मुमुक्षुत्वमिति परिगण्यते । स्फुटम् ॥१९॥
अर्थ:-पहला साधन नित्यानित्य-वस्तु-विवेक गिना जाता है, दूसरा लौकिक एवं पारलौकिक सुख भोग में वैराग्य होना है, तीसरा शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान- ये छः सम्पत्तियाँ हैं और चौथा मुमुक्षुता है।
इस श्लोक में वेदांत के चार प्रमुख साधनों का वर्णन किया गया है, जो आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जानने और आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं। यह श्लोक विशेष रूप से ब्रह्मजिज्ञासा की प्राप्ति के मार्ग को स्पष्ट करता है। इन चार साधनों में पहले नित्यानित्य वस्तु विवेक का उल्लेख है। नित्यानित्य वस्तु विवेक का अर्थ है, व्यक्ति को यह समझना कि जो वस्तुएँ स्थायी हैं और जो अस्थायी हैं, उनका भेद करना। यह विवेक इस बात की समझ प्रदान करता है कि संसार की सभी वस्तुएँ नश्वर हैं और केवल आत्मा (ब्रह्म) ही अजर, अमर और शाश्वत है। जब व्यक्ति इस विवेक को आत्मसात करता है, तो वह अपने अस्तित्व के वास्तविक स्वरूप को पहचानता है।
दूसरा साधन है लौकिक और पारलौकिक सुखों में वैराग्य, जिसका अर्थ है, व्यक्ति का उन भोगों से विमुक्त होना जो उसे इस संसार में मिलते हैं। लौकिक सुख जैसे धन, प्रतिष्ठा, भोग आदि और पारलौकिक सुख जैसे स्वर्ग, पुनर्जन्म के अच्छे फल आदि में भी वैराग्य आवश्यक है। इसका उद्देश्य यह है कि व्यक्ति अपने आत्मज्ञान के मार्ग में किसी भी प्रकार के भौतिक या मानसिक सुख से मोहग्रस्त न हो। वैराग्य का अभ्यास करने से व्यक्ति का ध्यान केवल आत्मा और परमात्मा पर केंद्रित होता है, और उसे बाहरी भोगों से कोई आकर्षण नहीं रहता।
तीसरा साधन है शमादि छह सम्पत्तियाँ। शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान ये सभी वे गुण हैं जो व्यक्ति को आत्मज्ञान की ओर अग्रसर करने में मदद करते हैं। शम का अर्थ है, मन की शांति और विकारों से मुक्ति, जबकि दम का अर्थ है, इन्द्रियों का नियंत्रण और संयम। उपरति का मतलब है, बाहरी भोगों से दूर रहना और तितिक्षा का अर्थ है, कष्टों और दुखों को सहन करने की क्षमता। श्रद्धा से तात्पर्य है, वेदों, शास्त्रों और गुरु में विश्वास, और समाधान का अर्थ है, आंतरिक संतोष और मानसिक स्थिरता। ये छह गुण व्यक्ति के आंतरिक विकास में सहायक होते हैं और उसे आत्मज्ञान की दिशा में अग्रसर करते हैं।
चौथा और अंतिम साधन है मुमुक्षुता। मुमुक्षुता का अर्थ है, आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जानने की तीव्र इच्छा और इस संसार के बंधनों से मुक्ति की लालसा। यह अवस्था तब उत्पन्न होती है जब व्यक्ति को संसार की नश्वरता का पूर्ण ज्ञान हो जाता है और वह आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए सब कुछ छोड़ने के लिए तैयार हो जाता है। मुमुक्षुता वह अंतिम स्थिति है, जिसमें व्यक्ति केवल आत्मा के स्वरूप को जानने के लिए हर अन्य बंधन को छोड़ने की मानसिकता में रहता है।
इन चार साधनों के अभ्यास से व्यक्ति अपनी आत्मा को पहचान सकता है और उसे शाश्वत सुख और शांति की प्राप्ति होती है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!