"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 20वां श्लोक"
"साधन-चतुष्टय अध्याय"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्येत्येवंरूपो विनिश्चयः ।
सोऽयं नित्यानित्यवस्तुविवेकः समुदाहृतः ॥ २० ॥
अर्थ:- 'ब्रह्म सत्य है और जगत् मिथ्या है' ऐसा जो निश्चय है यही 'नित्यानित्यवस्तु-विवेक' कहलाता है।
इस श्लोक में 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्येत्येवंरूपो विनिश्चयः' का अर्थ है कि ब्रह्म ही वास्तविक है और यह जगत् मिथ्या है। यह विचार अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह अद्वैत वेदांत का मूल सिद्धांत है, जिसमें ब्रह्म और संसार के बीच के अंतर को स्पष्ट किया जाता है। ब्रह्म को 'सत' अर्थात् वास्तविकता, अस्तित्व और शाश्वतता के रूप में माना जाता है, जबकि संसार को 'मिथ्या' अर्थात् असत्य, अव्यक्त और परिवर्तनशील के रूप में देखा जाता है।
इस श्लोक में 'नित्यानित्यवस्तु-विवेक' शब्द का उल्लेख किया गया है, जिसका अर्थ है – नित्य और अनित्य वस्तुओं के बीच विवेक या अंतर का ज्ञान। 'नित्य' का अर्थ है जो शाश्वत, अविनाशी और स्थिर है, जबकि 'अनित्य' का अर्थ है जो अस्थायी, बदलता हुआ और नाशवान है। इस विवेक के माध्यम से एक साधक ब्रह्म के सत्य स्वरूप को जानने की दिशा में अग्रसर होता है।
'नित्यानित्यवस्तु-विवेक' का साधना में बड़ा महत्व है। जब व्यक्ति यह समझता है कि ब्रह्म ही सत्य है और यह जगत केवल एक माया है, तो वह संसार के भौतिक सुखों और दुखों से दूर हो जाता है। उसे यह एहसास होता है कि भौतिक जगत में जो कुछ भी है, वह सब अस्थायी है और उसकी असलता केवल ब्रह्म में है। यही विवेक व्यक्ति को आत्मज्ञान की ओर अग्रसर करता है।
अधिकारियों का कहना है कि जब तक साधक नित्य और अनित्य के बीच का अंतर नहीं समझता, तब तक वह सही मार्ग पर नहीं चल सकता। इस विवेक को प्राप्त करने के लिए शास्त्रों का अध्ययन, गुरु की उपदेश, ध्यान और साधना का महत्व है।
अंत में, यह श्लोक इस बात की पुष्टि करता है कि केवल ब्रह्म ही सत्य है और यह संसार मिथ्या है। इसे समझकर व्यक्ति अपने जीवन को सही दिशा में प्रबंधित कर सकता है, क्योंकि जब उसे यह अनुभव हो जाता है कि ब्रह्म ही वास्तविकता है और यह संसार केवल माया है, तो उसका हर कार्य उस सत्य के प्रति समर्पित होता है। यही 'नित्यानित्यवस्तु-विवेक' है, जो व्यक्ति को आत्मज्ञान की ओर ले जाता है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!