"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 22वां श्लोक"
"साधन-चतुष्टय अध्याय"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
विरज्य विषयव्राताद्दोषदृष्ट्या मुहुर्मुहुः ।
स्वलक्ष्ये नियतावस्था मनसः शम उच्यते ॥ २२ ॥
अर्थ:-बारम्बार दोष-दृष्टि करने से विषय-समूह से विरक्त होकर चित्त का अपने लक्ष्य में स्थिर हो जाना ही 'शम' है।
यह श्लोक 'शम' के अर्थ और उसकी भूमिका को स्पष्ट करता है। 'शम' का अर्थ है मानसिक शांति और आत्म-संयम। यह तब प्राप्त होता है जब व्यक्ति अपने मन को विषयों और बाह्य आकर्षणों से हटा कर अपने परम लक्ष्य, अर्थात आत्मा या ब्रह्म में स्थिर कर लेता है। इस श्लोक में यह बताया गया है कि 'शम' का अभ्यास दोष-दृष्टि के माध्यम से होता है, अर्थात जब हम बार-बार अपनी मानसिकता और विचारों में किसी भी प्रकार के दोष या अशुद्धता को देख पाते हैं, तो हमें उनसे विरक्ति उत्पन्न होती है।
विषयव्रात, या बाह्य वस्तुओं के प्रति मोह, एक प्राकृतिक प्रवृत्ति है। मनुष्य का मन बाह्य संसार में रमा रहता है, क्योंकि उसे इन विषयों में सुख और संतोष की तलाश होती है। लेकिन जब हम इन विषयों के दोषों को देख पाते हैं, तो हम उनसे विमुख होने लगते हैं। इस दृष्टिकोण से शम का अभ्यास दोषों की पहचान और उनसे असंबद्धता के रूप में देखा जा सकता है। जैसे-जैसे व्यक्ति विषयों के प्रति अपनी आस्थाओं को कम करता है और उनके दोषों को समझता है, वैसे-वैसे वह आत्मा की ओर आकर्षित होता है और उसकी मानसिक स्थिति स्थिर होने लगती है।
जब मनुष्य बार-बार इन दोषों को देखता है, तो उसका मन इनसे मुक्त हो जाता है। बाह्य वस्तुओं और उनके आकर्षण से मानसिक बंधन टूटता है। यह स्थिति 'शम' के रूप में स्थापित होती है, जहाँ मन स्थिर और शांत होता है, और उसे किसी भी बाहरी आकर्षण का प्रभाव नहीं पड़ता। इस शांति की प्राप्ति के लिए मन को बार-बार दोषों की ओर इंगीत करने और उन पर विचार करने की आवश्यकता होती है। यही दोष-दृष्टि मानसिक शांति और संतुलन की ओर ले जाती है।
इसके अतिरिक्त, 'शम' का उद्देश्य केवल बाह्य वस्तुओं से विरक्ति ही नहीं है, बल्कि यह आत्म के शाश्वत सत्य की ओर मन को स्थिर करना है। जब मन विषयों से विमुख होता है और अपने परम उद्देश्य की ओर केंद्रित होता है, तब शांति की अवस्था प्रकट होती है। इस प्रकार, शम केवल बाह्य मानसिक शांति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आंतरिक स्थिरता और आत्म-ज्ञान की ओर मार्गदर्शन करने वाला एक महत्वपूर्ण साधन है।
अतः इस श्लोक के अनुसार, 'शम' का अभ्यास दोषों की पहचान और मन की शांति को बढ़ाने की प्रक्रिया है, जो व्यक्ति को अंततः आत्म-साक्षात्कार की दिशा में अग्रसर करता है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!