"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 23वां/24वां श्लोक"
"साधन-चतुष्टय अध्याय"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
विषयेभ्यः परावर्त्य स्थापनं स्वस्वगोलके ॥ २३ ॥ उभयेषामिन्द्रियाणां स दमः परिकीर्तितः ।
बाह्यानालम्बनं वृत्तेरेषोपरतिरुत्तमा ॥ २४॥
अर्थ:-कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दोनों को उनके विषयों से खींचकर अपने-अपने गोलकों में स्थित करना 'दम' कहलाता है। वृत्ति का बाह्य विषयों का आश्रय न लेना यही उत्तम 'उपरति' है।
वेदांत में आत्म-साक्षात्कार और साधना की दिशा में जो तात्त्विक ज्ञान और आचार्य द्वारा बताए गए मार्ग हैं, उनमें दो प्रमुख अवधारणाएँ हैं - दम और उपरति। ये दोनों ही अवधारणाएँ साधक के मानसिक और शारीरिक नियंत्रण की ओर इशारा करती हैं, ताकि वह बाह्य विषयों से विचलित न हो और अपने आत्मा की वास्तविकता में स्थित हो सके।
पहली अवधारणा 'दम' की है। यहाँ पर 'दम' का अर्थ है - मन और इंद्रियों का संयम और नियंत्रण। इस श्लोक में कहा गया है कि कर्मेंद्रिय (जो कार्यों को संचालित करने वाली इंद्रियाँ हैं, जैसे हाथ, पैर, आदि) और ज्ञानेंद्रिय (जो ज्ञान प्राप्ति से संबंधित इंद्रियाँ हैं, जैसे आँखें, कान, आदि) दोनों को उनके विषयों से खींचकर अपने-अपने गोलकों में स्थित करना, यही 'दम' है। इस वाक्य का तात्पर्य है कि हमें अपने इंद्रियों को उनके बाह्य विषयों से ध्यान हटाकर, भीतर की ओर मोड़ना चाहिए। इसका उद्देश्य यह है कि इंद्रियाँ बाहरी वस्तुओं की ओर न दौड़ें और अपने स्वाभाविक लक्ष्यों की ओर केन्द्रित रहें।
हम जानते हैं कि इंद्रियाँ स्वाभाविक रूप से बाह्य वस्तुओं के प्रति आकर्षित होती हैं। उदाहरण स्वरूप, हमारी आँखें दृश्य रूपों की ओर और कान श्रवण के लिए खिंचते हैं। जब तक इन इंद्रियों को नियंत्रित नहीं किया जाता, तब तक हमारा मन लगातार इन बाह्य आकर्षणों में खो जाता है। इसीलिए वेदांत में कहा गया है कि जब इंद्रियों को विषयों से हटा लिया जाता है और मन में स्थित किया जाता है, तो साधक ध्यान और समाधि की स्थिति में प्रवेश कर सकता है। 'दम' यही दर्शाता है कि इंद्रियों को बाहरी विषयों से दूर करके, मन को एकत्रित किया जाए, ताकि अंतःकरण और चित्त की एकाग्रता हो सके।
अब 'उपरति' की बात करें, तो यह भी एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। 'उपरति' का अर्थ है - विषयों से विरक्ति और उनकी ओर से मोह का समाप्त होना। श्लोक में कहा गया है कि जब वृत्ति (मन की गतिविधियाँ) बाह्य विषयों का आश्रय नहीं लेतीं, तो इसे उत्तम 'उपरति' कहा जाता है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब व्यक्ति बाहरी संसार की आकर्षक वस्तुओं और अनुभवों से मुक्त हो जाता है। उदाहरण के तौर पर, जब कोई साधक किसी वस्तु या विषय में आकर्षण महसूस करता है, तो वह मानसिक रूप से उस विषय में उलझ जाता है। परंतु, जब वह उस विषय से मानसिक दूरी बना लेता है और उसका कोई आकर्षण नहीं रहता, तो वह 'उपरति' की अवस्था में प्रवेश कर चुका होता है।
यह अवस्था साधक को मानसिक शांति और स्थिरता प्रदान करती है। जब इंद्रियाँ और मन बाह्य विषयों से निरंतर दूर रहते हैं, तब आत्म-ज्ञान की प्राप्ति की प्रक्रिया सरल और तीव्र हो जाती है। उपरति का उद्देश्य यही है कि साधक बाहरी वासनाओं से मुक्त होकर केवल आत्मा की एकता में स्थित हो। यह मानसिक शांति और संयम की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
इन दोनों अवधारणाओं - दम और उपरति - का उद्देश्य यही है कि साधक अपने इंद्रिय और मानसिक प्रवृत्तियों पर काबू पाकर, अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप को पहचान सके। जब इंद्रियाँ अपने विषयों से हटा ली जाती हैं और मन बाह्य आकर्षणों से मुक्त हो जाता है, तो साधक को एक स्थिति प्राप्त होती है जहाँ वह अपनी आत्मा के साथ एकाकार हो सकता है। यही स्थिति समाधि और आत्म-ज्ञान की ओर एक महत्वपूर्ण कदम होती है।
इस प्रकार, 'दम' और 'उपरति' साधना के दो महत्वपूर्ण पहलू हैं, जो साधक को आत्म-साक्षात्कार की ओर मार्गदर्शन करते हैं। इन दोनों का अभ्यास और पालन करने से व्यक्ति अपने जीवन में मानसिक और शारीरिक संतुलन बनाए रख सकता है और आत्मा की गहरी समझ को प्राप्त कर सकता है। यह प्रक्रिया न केवल जीवन को शांति और स्थिरता प्रदान करती है, बल्कि आत्मा की वास्तविकता को जानने का रास्ता भी खोलती है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!