"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 25वां श्लोक"
"साधन-चतुष्टय अध्याय"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
सहनं सर्वदुः खानामप्रतीकारपूर्वकम् ।
चिन्ताविलापरहितं सा तितिक्षा निगद्यते ॥ २५ ॥
अर्थ:-चिन्ता और शोक से रहित होकर बिना कोई प्रतिकार किये सब प्रकार के कष्टों का सहन करना 'तितिक्षा' कहलाती है।
'तितिक्षा' का शाब्दिक अर्थ है सहनशक्ति — एक ऐसी मानसिक अवस्था जिसमें साधक बिना किसी प्रतिकार, विरोध या प्रतिक्रिया के, बाह्य व आन्तरिक कष्टों को समभाव से सहन करता है। उपर्युक्त श्लोक में तितिक्षा को इस प्रकार परिभाषित किया गया है — “सहनं सर्वदुःखानामप्रतीकारपूर्वकम्, चिन्ताविलापरहितं सा तितिक्षा निगद्यते।” अर्थात् जो व्यक्ति बिना किसी प्रतिकार के, बिना चिन्ता या विलाप के, सभी प्रकार के दुःखों का सहन करता है, वही तितिक्षा का अधिकारी है।
यह गुण साधनचतुष्टय का एक अंग है — शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान, जो आत्मसाक्षात्कार की दिशा में अत्यंत आवश्यक हैं। तितिक्षा का वास्तविक स्वरूप केवल सहन करना नहीं है, बल्कि बिना मानसिक खिन्नता, अशांति, या प्रतिक्रिया के — शांत और समभाव से उसे सहन करना है। जैसे कोई साधक सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास, निंदा, स्तुति, मान-अपमान जैसी परिस्थितियों में भी अपना धैर्य और मानसिक स्थिरता बनाए रखता है — वह तितिक्षा का आदर्श उदाहरण है।
तितिक्षा का यह गुण जीवन के सभी स्तरों पर उपयोगी है। सामान्यतः हम प्रतिकूलताओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील रहते हैं और छोटी-छोटी बातों में मानसिक अस्थिरता या प्रतिक्रिया देने लगते हैं। परंतु एक साधक को यह समझना होता है कि बाह्य परिस्थितियाँ सदा अनुकूल नहीं होंगी, और यदि वह सच्चे ज्ञान की ओर अग्रसर होना चाहता है तो उसे अपने चित्त को अनुकूल-अनुकूल से परे रखना होगा। तितिक्षा इसी दिशा में सहायक बनती है।
आदि शंकराचार्य ने विवेकचूडामणि में तितिक्षा को एक अत्यंत आवश्यक साधन माना है। उनके अनुसार, तितिक्षा का अभाव व्यक्ति को बार-बार अपने मार्ग से विचलित कर सकता है। यह गुण केवल सहनशक्ति नहीं, बल्कि मानसिक संतुलन और धैर्य का प्रतीक है। इसका अभ्यास प्रारंभिक अवस्था में कठिन प्रतीत हो सकता है, परंतु धीरे-धीरे यह सहज होने लगता है।
जब व्यक्ति इस गुण को अपने जीवन में दृढ़ करता है, तब वह बाह्य परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होता और भीतर स्थित आत्मा की ओर अधिक उन्मुख होता है। वह जानता है कि सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय ये सभी द्वंद्व केवल शरीर और मन के स्तर पर हैं, आत्मा पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। तितिक्षा ही उसे इन द्वंद्वों से पार कराने का माध्यम बनती है।
इस प्रकार तितिक्षा केवल एक गुण नहीं, बल्कि आत्म-साक्षात्कार की दिशा में एक अत्यंत शक्तिशाली साधन है। यह जीवन को स्थिरता, धैर्य और गहराई प्रदान करता है। जो साधक इस गुण को आत्मसात कर लेता है, वह संसार के सारे उतार-चढ़ावों में भी शांति और संतुलन बनाए रखता है और आत्मज्ञान की ओर दृढ़तापूर्वक अग्रसर होता है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!