"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 26वां श्लोक"
"साधन-चतुष्टय अध्याय"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
शास्त्रस्य गुरुवाक्यस्य सत्यबुद्ध्यवधारणम् ।
सा श्रद्धा कथिता सद्भिर्यया वस्तूपलभ्यते ॥ २६ ॥
अर्थ:-शास्त्र और गुरु वाक्यों में सत्यत्व बुद्धि करना-इसी को सज्जनों ने 'श्रद्धा' कहा है, जिससे कि वस्तु की प्राप्ति होती है।
श्रद्धा आत्मिक उन्नति की वह गूढ़ और अनिवार्य भूमिका है जो साधक को सत्य के साक्षात्कार की ओर अग्रसर करती है। उपर्युक्त श्लोक में श्रद्धा का अत्यंत सूक्ष्म और सारगर्भित निरूपण किया गया है। इसमें कहा गया है कि शास्त्र — अर्थात् उपनिषद, भगवद्गीता, ब्रह्मसूत्र आदि, जो वेदांत के प्रमाण ग्रंथ हैं — और गुरुवाक्य — अर्थात् आत्मसाक्षात्कारी गुरु द्वारा दिए गए उपदेश — इन दोनों में सत्यबुद्धि होना ही श्रद्धा है। इसका अर्थ यह है कि साधक इन वचनों को संदेह रहित, पूर्ण निष्ठा एवं विश्वास के साथ सत्य मानता है, चाहे उसकी अभी व्यक्तिगत अनुभूति न हुई हो।
श्रद्धा कोई अंधविश्वास नहीं है, बल्कि यह विवेकपूर्ण विश्वास है जो गुरु और शास्त्रों की प्रमाणिकता को समझकर उत्पन्न होता है। जब कोई साधक इस धारणा के साथ वेदांत का अध्ययन करता है कि "जो कुछ भी शास्त्र और गुरु कहते हैं, वह मेरे कल्याण के लिए और परम सत्य की प्राप्ति हेतु है", तब उसकी अंतःकरण भूमि शुद्ध होती है और ज्ञान का बीज उसमें अंकुरित होता है।
श्रद्धा का उद्देश्य केवल ज्ञान संग्रह नहीं, बल्कि वस्तु — अर्थात् आत्मतत्त्व, ब्रह्म — की प्राप्ति है। जब शास्त्र कहता है कि "तत्त्वमसि" — तू वही ब्रह्म है — और गुरु उस कथन की पुष्टि करता है, तब श्रद्धा से युक्त साधक इस वचन को केवल वैचारिक रूप से नहीं, वरन् अपने जीवन का लक्ष्य बनाकर उसमें प्रवेश करता है। यह प्रवेश तभी संभव है जब उसमें शंका, संशय और तर्क के जाल से ऊपर उठकर गुरु और शास्त्र में पूर्ण समर्पण हो।
शंकराचार्य श्रद्धा को "शास्त्रगुरुवाक्येषु सत्यबुद्ध्यवधारणम्" कहकर स्पष्ट करते हैं कि यह किसी बाह्य आडंबर या अनुकरण नहीं, बल्कि सत्य के प्रति अंतःकरण की स्वीकृति है। श्रद्धा उस पुल की भाँति है जो तर्क और अनुभव के बीच सेतु बनाकर साधक को आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाती है। श्रद्धा के बिना कोई भी अभ्यास — चाहे वह श्रवण हो, मनन हो या निदिध्यासन — फलदायक नहीं हो सकता।
श्रद्धा का संबंध हृदय से है, परंतु वह अंधी नहीं होती। यह उस प्रकार की श्रद्धा है जो विवेक और गुरु कृपा के साथ संयुक्त होकर साधक के अंतर में जिज्ञासा, समर्पण और साहस को जन्म देती है। जब तक श्रद्धा दृढ़ नहीं होती, तब तक आत्मज्ञान केवल एक विचार बना रहता है, उसका अनुभव नहीं होता।
अतः यह स्पष्ट होता है कि श्रद्धा ही वह बीज है जिससे आत्मज्ञान का वटवृक्ष उत्पन्न होता है। गुरु के वचनों और शास्त्र के सिद्धांतों में दृढ़ विश्वास से ही साधक अंतर्मुख होकर चित्त की शुद्धि करता है, और अंत में 'वस्तु' — अर्थात् ब्रह्म — का अनुभव करता है। इस प्रकार श्रद्धा, साधना पथ की मूल आधारशिला है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!