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गुरुवार, 19 जून 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 27वां श्लोक"



"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 27वां श्लोक"

"साधन-चतुष्टय अध्याय"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

सर्वदा स्थापनं बुद्धेः शुद्धे ब्रह्मणि सर्वथा। तत्समाधानमित्युक्तं न तु चित्तस्य लालनम् ॥ २७ ॥

अर्थ:-अपनी बुद्धि को सब प्रकार शुद्ध ब्रह्म में ही सदा स्थिर रखना इसी को 'समाधान' कहा है। चित्त की इच्छापूर्ति का नाम समाधान नहीं है।

‘सर्वदा स्थापनं बुद्धेः शुद्धे ब्रह्मणि सर्वथा। तत्समाधानमित्युक्तं न तु चित्तस्य लालनम् ॥’ — इस श्लोक के माध्यम से आचार्य शंकर, विवेकचूडामणि में ‘समाधान’ नामक शमादि षट्कसम्पत्ति के एक महत्त्वपूर्ण अंग की व्याख्या कर रहे हैं। समाधान का अर्थ सामान्यतः लोग शांति, संतोष या किसी समस्या के हल के रूप में करते हैं, किन्तु यहाँ शंकराचार्य समाधान का विशुद्ध आध्यात्मिक और तत्त्वज्ञान आधारित अर्थ स्पष्ट करते हैं।

यहाँ समाधान का अर्थ है — बुद्धि को पूर्ण रूप से, नित्य रूप से, शुद्ध ब्रह्म में स्थिर कर देना। ब्रह्म, जो निर्विकार, निराकार, नित्य, शुद्ध और पूर्ण चैतन्यस्वरूप है, उसमें जब साधक की बुद्धि सदा के लिए स्थिर हो जाती है, तो वही वास्तविक समाधान कहलाता है। इसका अर्थ यह है कि साधक का चित्त संसार के विषयों में न भटके, न ही क्षणिक सुखों में उलझे, अपितु निरन्तर उस एकमेव सत्य — ब्रह्म — की ओर केन्द्रित हो जाए।

शंकराचार्य स्पष्ट करते हैं कि केवल मन की इच्छाओं की पूर्ति करना या चित्त को तात्कालिक संतोष देना समाधान नहीं है। चित्त की लालसाएँ तो अंतहीन हैं, और उनकी पूर्ति में समाधान नहीं अपितु और अधिक उलझाव उत्पन्न होता है। समाधान का तात्पर्य है — चित्त और बुद्धि की दिशा संसार से हटाकर परब्रह्म की ओर लगाना, जहाँ कोई द्वैत नहीं, कोई कामना नहीं, केवल शुद्ध ‘सत्-चित्-आनन्द’ स्वरूप का बोध है।

साधना में यह स्थिति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जब तक साधक की बुद्धि चंचल है, अनेक विषयों में उलझी है, तब तक आत्मज्ञान की प्राप्ति असम्भव है। ‘समाधान’ वह स्थिति है जहाँ साधक की बुद्धि बार-बार ब्रह्म में लीन होने का अभ्यास करती है, और अंततः वही उसकी स्वाभाविक स्थिति बन जाती है। इस समाधिस्थ स्थिति में चित्त बाहर की कोई आकृष्टि नहीं चाहता, उसे न इन्द्रिय विषय प्रिय लगते हैं और न ही मन के सुखद स्वप्न।

यह अवस्था केवल ज्ञान के बल पर ही आती है। बारम्बार श्रवण, मनन और ध्यान के द्वारा साधक यह अनुभव करता है कि यह समस्त जगत् नश्वर और असार है, केवल ब्रह्म ही नित्य है। जब यह बोध दृढ़ होता है, तब बुद्धि स्वाभाविक रूप से ब्रह्म में रमी रहती है। यही समाधान की पूर्णता है।

इस प्रकार, समाधान केवल मानसिक शांति नहीं, वरन् बुद्धि की ब्रह्म में स्थिरता है। यह एक स्थायी स्थिति है, जिसमें साधक आत्मानुभूति की ओर अग्रसर होता है। समाधान का अर्थ है — द्वैत से हटकर अद्वैत में प्रतिष्ठा, चित्त की विक्षेपवृत्तियों का शमन, और ब्रह्मवृत्ति में पूर्ण रूप से स्थित हो जाना। यही वास्तविक साधन है आत्मज्ञान की दिशा में।


ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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