"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 28वां श्लोक"
"साधन-चतुष्टय अध्याय"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अहंकारादिदेहान्तान्बन्धानज्ञानकल्पितान् स्वस्वरूपावबोधेन मोक्तुमिच्छा मुमुक्षुता ॥ २८ ॥
अर्थ:-अहंकार से ले कर देह पर्यन्त जितने अज्ञान-कल्पित बन्धन हैं, उनको अपने स्वरूप के ज्ञान द्वारा त्यागने की इच्छा 'मुमुक्षुता' है।
‘मुमुक्षुता’ का तात्पर्य उस प्रबल इच्छाशक्ति से है, जो आत्मा को जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त कराने के लिए भीतर से उत्पन्न होती है। श्लोक में कहा गया है कि अहंकार से लेकर देह तक जितने भी बन्धन हैं, वे सब अज्ञान से उत्पन्न हैं। ये बन्धन आत्मा को उसके शुद्ध स्वरूप से अलग रखते हैं और उसे संसार के विविध प्रकार के दुख-सुखों में बाँध देते हैं। जब साधक यह अनुभव करता है कि ये सभी बन्धन उसकी वास्तविक स्वतंत्रता को छीन रहे हैं, तब उसके भीतर एक तीव्र आकांक्षा जागती है – इस संपूर्ण अज्ञान रूपी बन्धन से मुक्ति की। यही तीव्र आकांक्षा 'मुमुक्षुता' कहलाती है।
अहंकार से आशय है 'मैं' और 'मेरा' की भावना – यह धारणा कि 'मैं देह हूँ', 'मैं कर्ता हूँ', 'मैं भोक्ता हूँ'। यह अहंकार ही समस्त बन्धनों का मूल कारण है। इससे ही 'ममत्व' अर्थात् किसी वस्तु को 'अपना' मानने की वृत्ति उत्पन्न होती है, और फिर सुख-दुख, भय, शोक, ईर्ष्या, द्वेष आदि वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं। शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदि को 'स्व' मानना ही अज्ञान का लक्षण है, और इस अज्ञान से ही पुनर्जन्म का चक्र बना रहता है। इस चक्र से निकलने की इच्छा, एक सामान्य इच्छा नहीं होती – यह समस्त सांसारिक इच्छाओं को तिरस्कृत कर उठने वाली जिजीविषा है, जो आत्मा की स्वतंत्रता के लिए तड़पती है।
‘स्वस्वरूपावबोधेन’ – अर्थात् अपने वास्तविक स्वरूप, जो कि चैतन्य, शुद्ध, साक्षी, निर्विकार ब्रह्मस्वरूप है, उसके ज्ञान से ये सभी बन्धन नष्ट हो सकते हैं। यह ज्ञान कोई बौद्धिक या सूचनात्मक ज्ञान नहीं है, बल्कि प्रत्यक्ष आत्मानुभूति है। जब साधक श्रवण, मनन और निदिध्यासन के माध्यम से इस ज्ञान को दृढ़ कर लेता है, तब वह जान लेता है कि वह शरीर, मन या अहंकार नहीं है, बल्कि वह तो शुद्ध आत्मा है – अजर, अमर, अविनाशी, सर्वत्र व्यापक। इस आत्मज्ञान से ही अज्ञानजनित बन्धन स्वतः मिट जाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे सूरज के उदय होते ही अंधकार का लोप हो जाता है।
मुमुक्षुता साधक के जीवन में एक निर्णायक मोड़ होती है। यह केवल ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा नहीं है, बल्कि ज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण बन्धनों से मुक्त होने की तीव्र व्याकुलता है। मुमुक्षुता के बिना वैराग्य, विवेक और शमादि-षट्क सम्पत्ति भी केवल बौद्धिक अभ्यास बन कर रह जाती है। यही कारण है कि वेदान्त में मुमुक्षुता को आत्मसाक्षात्कार के लिए अत्यन्त आवश्यक बताया गया है।
इस प्रकार, मुमुक्षुता वह अंतरात्मा की पुकार है जो शुद्ध चैतन्य स्वरूप में स्थिति चाहती है, वह पुकार जो संसार के असत्यता और क्षणभंगुरता को जानकर अपने शाश्वत अस्तित्व की ओर दौड़ती है। यही पुकार साधक को आत्मसाक्षात्कार की दिशा में अग्रसर करती है और अन्ततः मुक्त बनाती है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!