"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 29वां श्लोक"
"साधन-चतुष्टय अध्याय"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
मन्दमध्यमरूपापि वैराग्येण शमादिना।
प्रसादेन गुरोः सेयं प्रवृद्धा सूयते फलम् ॥ २९ ॥
अर्थ:-वह मुमुक्षुता मन्द और मध्यम भी हो तो भी वैराग्य तथा शमादि षट्सम्पत्ति और गुरुकृपा से बढ़कर फल उत्पन्न करती है।
यह श्लोक "विवेकचूडामणि" का है, जिसमें मुमुक्षुता अर्थात् मुक्ति की तीव्र इच्छा की महिमा बताई गई है। इसमें कहा गया है कि यदि मुमुक्षुता मंद (धीमी) या मध्यम (मध्यम स्तर की) भी हो, तो भी वह वैराग्य, शम आदि साधनों और गुरुकृपा के प्रभाव से बढ़ती है और अंततः फल को प्राप्त कर लेती है। इस प्रकार, यह श्लोक उन साधकों के लिए अत्यंत प्रेरणादायक है, जो अपने भीतर तीव्र वैराग्य या मुमुक्षुता का अभाव अनुभव करते हैं।
यहाँ तीन मुख्य बिंदु हैं: मुमुक्षुता की प्रकृति, शमादि षट्सम्पत्ति का योगदान, और गुरु की कृपा। सबसे पहले, मुमुक्षुता के तीन स्तर होते हैं—मन्द, मध्यम और तीव्र। तीव्र मुमुक्षुता वाले साधक शीघ्र ही आत्मज्ञान के मार्ग पर अग्रसर होते हैं। परंतु यदि यह तीव्र नहीं भी है, तो भी निराश होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि अन्य साधन इसे बढ़ाने में सहायक होते हैं। अर्थात्, यदि कोई साधक अभी तीव्र इच्छा नहीं रखता, फिर भी वह साधन करता रहे, तो उसकी इच्छा धीरे-धीरे तीव्र होती जाएगी।
शमादि षट्सम्पत्ति—शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान—ये सभी चित्त को शुद्ध और स्थिर बनाने में सहायक होते हैं। जब चित्त विषयों की ओर भागना छोड़ देता है और आत्मलक्ष्य में स्थित होता है, तब वैराग्य भी दृढ़ होता है और मुमुक्षुता स्वाभाविक रूप से प्रबल होती है। वैराग्य से विषयों में रुचि घटती है और आत्मज्ञान के प्रति झुकाव बढ़ता है। अतः यह कहा गया है कि शमादि साधनों से मन्द-मध्यम मुमुक्षुता भी परिपक्व होकर फलदायी हो जाती है।
गुरु की कृपा इस प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण घटक है। गुरु न केवल साधक को मार्ग दिखाते हैं, अपितु अपने अनुभव और ज्ञान से साधक के भीतर छिपी मुमुक्षुता को जाग्रत करते हैं। गुरु की कृपा से ही साधक को आत्मविचार का सूत्रपात होता है और वह बारंबार आत्मस्वरूप की ओर उन्मुख होता है। एक सच्चे गुरु की संगति में रहकर साधक के भीतर की शुद्ध भावनाएँ जाग्रत होती हैं और उसका चित्त स्थिर होकर आत्मसाक्षात्कार की दिशा में बढ़ता है।
इस श्लोक का मर्म यह है कि भले ही साधक के भीतर प्रारंभ में प्रबल मुमुक्षुता न हो, फिर भी यदि वह वैराग्य, शमादि गुणों का अभ्यास करता है और गुरु की शरण में रहता है, तो उसकी साधना निष्फल नहीं जाती। जैसे अग्नि की छोटी चिनगारी भी यदि ईंधन और हवा से संपर्क में आए तो प्रज्वलित होकर तेज ज्वाला बन जाती है, वैसे ही मंद मुमुक्षुता भी उचित साधनों और गुरु कृपा से प्रज्वलित होकर आत्मसाक्षात्कार का माध्यम बन सकती है। यही साधना का सौंदर्य है—सच्ची लगन, निरंतर अभ्यास और समर्पण से हर साधक मोक्ष का अधिकारी बन सकता है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!