"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 30वां श्लोक"
"साधन-चतुष्टय अध्याय"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
वैराग्यं च मुमुक्षुत्वं तीव्र यस्य तु विद्यते ।
तस्मिन्नेवार्थवन्तः स्युः फलवन्तः शमादयः ॥ ३० ॥
जिस पुरुष में वैराग्य और मुमुक्षुत्व तीव्र होते हैं, उसी में शमादि चरितार्थ और सफल होते हैं।
विवेकचूडामणि का यह श्लोक साधक के भीतर वैराग्य और मुमुक्षुत्व की तीव्रता की आवश्यकता को उजागर करता है। शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान — इन छह गुणों को शमादि षट्सम्पत्ति कहा जाता है, जो आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए अत्यंत आवश्यक माने गए हैं। किन्तु यह श्लोक बताता है कि ये सभी गुण तभी सार्थक होते हैं जब साधक के भीतर तीव्र वैराग्य और प्रबल मुमुक्षुत्व हो।
वैराग्य का अर्थ है संसार के समस्त भोगों और अनित्य वस्तुओं में अरुचि या विरक्ति। जब साधक यह समझ लेता है कि यह संसार और इसकी सुख-सुविधाएँ क्षणिक, नश्वर और दुःख का कारण हैं, तब उसमें वैराग्य उत्पन्न होता है। यह वैराग्य ही मन को बाह्य आकर्षणों से हटाकर अन्तर्मुखी करता है। यदि यह वैराग्य सतही या केवल बौद्धिक हो, तो साधना में स्थिरता नहीं आ पाती। केवल तीव्र वैराग्य ही साधक को अपने लक्ष्य पर एकनिष्ठ बनाए रखता है।
मुमुक्षुत्व का अर्थ है मोक्ष की तीव्र इच्छा। यह साधक के हृदय में जलती हुई उस तृष्णा के समान है जो केवल आत्मज्ञान द्वारा तृप्त हो सकती है। यह इच्छा साधक को आलस्य, मोह, और प्रमाद से बाहर निकालकर उसे तप, स्वाध्याय, सेवा और ध्यान की ओर प्रवृत्त करती है। जब मुमुक्षु को यह दृढ़ विश्वास हो जाता है कि आत्मा ही शाश्वत है और उसका साक्षात्कार ही जीवन का परम उद्देश्य है, तभी वह सभी बाधाओं को पार करने का साहस जुटा पाता है।
शमादि गुणों का विकास और उनकी सफलता भी इसी वैराग्य और मुमुक्षुत्व पर निर्भर है। उदाहरणतः शम का अर्थ है मन की स्थिरता और विषयों से निवृत्ति, पर यदि वैराग्य नहीं है तो मन बार-बार विषयों की ओर आकर्षित होता रहेगा। दम यानी इन्द्रिय-निग्रह भी तभी संभव है जब साधक को इन इन्द्रियों के विषयों में कोई आकर्षण न रह जाए। इसी प्रकार, तितिक्षा — अर्थात कष्टों को सहन करने की शक्ति, श्रद्धा — शास्त्र और गुरु के वचनों में दृढ़ विश्वास, और समाधान — बुद्धि की एकाग्रता, यह सब तभी विकसित होते हैं जब भीतर वैराग्य और मुमुक्षुत्व की तीव्र ज्वाला हो।
इस प्रकार यह श्लोक यह स्पष्ट करता है कि शमादि षट्सम्पत्ति केवल बाह्य आचरण नहीं है, बल्कि यह आन्तरिक अवस्था है, जो गहराई से वैराग्य और मुमुक्षुत्व पर निर्भर है। साधक यदि इन दो गुणों को तीव्रता से अपने भीतर विकसित कर ले, तो बाकी सभी गुण स्वतः उसके जीवन में प्रकट होते हैं। इसके विपरीत, यदि वैराग्य और मुमुक्षुत्व कमजोर हैं, तो शमादि गुण केवल सतही बनकर रह जाते हैं और आत्मज्ञान का मार्ग कठिन हो जाता है। अतः अध्यात्म पथ पर चलने वाले प्रत्येक साधक को चाहिए कि वह सबसे पहले अपने भीतर वैराग्य और मोक्ष की तीव्र आकांक्षा को प्रज्वलित करे। यही साधना की जड़ है, और इसी से समस्त साधनाएँ फलवती होती हैं।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!