"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 31वां श्लोक"
"साधन-चतुष्टय अध्याय"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
एतयोर्मन्दता यत्र विरक्तत्वमुमुक्षयोः ।
मरौ सलिलवत्तत्र शमादेर्भासमात्रता ॥ ३१॥
अर्थ:-जहाँ इन वैराग्य और मुमुक्षुत्व की मन्दता है, वहाँ शमादि का भी मरुस्थल में जल-प्रतीति के समान आभास मात्र ही समझना चाहिये।
शंकराचार्यजी ने इस श्लोक में एक अत्यंत सूक्ष्म और महत्वपूर्ण सत्य को प्रकट किया है। साधन चतुष्टय में वर्णित शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान — ये सभी साधन आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं। परंतु इनका वास्तविक फल तब ही प्राप्त होता है जब वैराग्य और मुमुक्षुत्व तीव्र हों। यदि वैराग्य और मुमुक्षुत्व मन्द अर्थात् दुर्बल और सतही हों, तो शमादि सद्गुणों का अस्तित्व केवल एक आभास ही रहेगा, उनकी जड़ गहरी नहीं होगी।
श्लोक में ‘मरौ सलिलवत्’ — मरुभूमि में जल के भ्रम की उपमा दी गई है। जैसे रेगिस्तान में दूर से जल प्रतीत होता है पर पास जाने पर वह केवल मृगतृष्णा निकलती है, वैसे ही जिस साधक में वैराग्य और मुमुक्षुत्व तीव्र नहीं होते, उसमें शमादि सद्गुणों का केवल दिखावा या सतही अनुभव होता है, वास्तविक गहराई नहीं होती। ऐसा साधक बाहर से शांत, संयमी और श्रद्धालु दिखाई दे सकता है, लेकिन भीतर उसकी वासनाएं, राग-द्वेष, और आत्मज्ञान की वास्तविक तृष्णा जागृत नहीं होती। इसलिए उसकी साधना स्थायित्व नहीं प्राप्त कर पाती।
वैराग्य का अर्थ है — सम्पूर्ण अनित्य वस्तुओं से निःस्पृहता। और मुमुक्षुत्व का अर्थ है — बंधनों से छूटने की तीव्र इच्छा। यदि ये दोनों दुर्बल हैं, तो साधक को संसार के विषयों में अब भी आसक्ति बनी रहती है, और आत्मज्ञान की जिज्ञासा केवल शाब्दिक या बौद्धिक स्तर पर सीमित रहती है। ऐसे में वह यथार्थ में अपने मन को ब्रह्म में स्थिर नहीं कर सकता, न ही स्थायी समाधि की अवस्था प्राप्त कर सकता है।
यह श्लोक साधकों के लिए एक चेतावनी के समान है — कि केवल बाह्य शांति या व्यवहारिक अनुशासन पर्याप्त नहीं है। यदि आत्मा की गहराई में वैराग्य और मुमुक्षुत्व की ज्वाला प्रज्वलित नहीं है, तो साधन चतुष्टय की अन्य अंग भी केवल सतही अभ्यास तक सीमित रहेंगे। जब मन में विषयों की आसक्ति और जीवन-मरण के चक्र से मुक्त होने की तीव्र लालसा नहीं होती, तब आत्मा को जानने की सारी चेष्टाएँ एक प्रकार की मृगतृष्णा बन जाती हैं।
इसलिए शंकराचार्यजी का संदेश स्पष्ट है — पहले वैराग्य और मुमुक्षुत्व को तीव्र बनाओ। जब तक भीतर से अनित्य वस्तुओं के प्रति घृणा नहीं होती और नित्य वस्तु ब्रह्म की प्राप्ति की तीव्र प्यास नहीं जगती, तब तक शम, दम आदि गुणों का अभ्यास गहरा नहीं हो सकता। साधना की सच्चाई इन्हीं दो तत्वों — वैराग्य और मुमुक्षुत्व — की तीव्रता से परखी जाती है। अन्यथा, साधना केवल दिखावा बनकर रह जाती है।
इस प्रकार, यह श्लोक आत्मनिरीक्षण के लिए एक गहरा संकेत है कि साधना की सफलता का मूल आधार मन की तीव्र वैराग्यता और मुक्त होने की उत्कट लालसा है। यदि ये नहीं हैं, तो अन्य गुण भी केवल 'भासमात्र' ही कहे जाएंगे — आभास तो होगा, पर सार नहीं।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!