"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 32वां श्लोक"
"साधन-चतुष्टय अध्याय"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
मोक्षकारणसामग्रयां भक्तिरेव गरीयसी।
स्वस्वरूपानुसन्धानं
भक्तिरित्यभिधीयते ॥ ३२ ॥
स्वात्मतत्त्वानुसन्धानं भक्तिरित्यपरे जगुः ।
अर्थ:-मुक्ति की कारण रूप सामग्री में भक्ति ही सबसे बढ़ कर है और अपने वास्तविक स्वरूप का अनुसन्धान करना ही 'भक्ति' कहलाता है। कोई-कोई 'स्वात्म-तत्त्व का अनुसन्धान ही भक्ति है'- ऐसा कहते हैं।
'मोक्षकारणसामग्रयां भक्तिरेव गरीयसी' — यह वाक्य दर्शाता है कि आत्ममोक्ष की प्राप्ति के लिए जितने भी साधन हैं, उनमें भक्ति ही सर्वोपरि और सबसे प्रभावशाली साधन है। यह श्लोक भक्तियोग की गहराई को अद्वैत वेदान्त की दृष्टि से प्रस्तुत करता है, जहाँ भक्ति केवल भगवान की उपासना मात्र नहीं है, बल्कि यह अपने शुद्ध स्वरूप — आत्मा — का अनुसंधान है। यहाँ भक्ति का तात्पर्य किसी विशेष रूप की पूजा, भावनात्मक लगाव या आराधना से नहीं, बल्कि अपने भीतर के शुद्ध, चैतन्यस्वरूप आत्मा की निरन्तर खोज और अनुभूति से है। इसीलिए कहा गया — "स्वस्वरूपानुसन्धानं भक्तिरित्यभिधीयते।" अर्थात्, अपने शुद्ध स्वरूप का निरीक्षण, अनुसंधान और उसमें स्थित होना ही भक्ति है।
प्रत्येक साधक का लक्ष्य है — बन्धनों से मुक्त होकर परम शान्ति को प्राप्त करना, जिसे 'मोक्ष' कहते हैं। इस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए शास्त्रों में विवेक, वैराग्य, शमादि षट्सम्पत्ति, और मुमुक्षुत्व को आवश्यक साधन बताया गया है, किन्तु जब इन सबको एकसूत्र में पिरोकर हृदय से जो भाव उपजता है, वही सच्ची भक्ति होती है। यह भक्ति केवल भगवान के बाह्य रूप की पूजा नहीं, बल्कि उसकी अन्तःस्थित चेतना से एकात्मकता का अनुभव है। जब साधक भीतर झांकता है और यह अनुभव करता है कि ‘मैं शरीर, मन या बुद्धि नहीं हूँ, मैं तो शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा हूँ’, तब यह अनुसंधान ही सच्ची भक्ति बन जाती है। इसीलिए कहा — “स्वात्मतत्त्वानुसन्धानं भक्तिरित्यपरे जगुः”, अर्थात् कुछ महापुरुषों ने कहा है कि आत्मतत्त्व का अनुसंधान करना ही भक्ति है।
यह परिभाषा शंकराचार्य की उस परंपरा से आती है, जहाँ भक्ति और ज्ञान में कोई विरोध नहीं माना जाता। सामान्यतः यह भ्रांति होती है कि भक्ति तो भाव की बात है और ज्ञान तो तर्क और विवेक की, परन्तु यहाँ स्पष्ट किया गया है कि जो ज्ञान अपने आत्मस्वरूप की ओर ले जाए, वही सच्ची भक्ति है। जब कोई व्यक्ति अपने चित्त को अन्तर्मुख करता है, विषयों से हटाकर आत्मा में स्थिर करता है, तो वह भगवान की सच्ची भक्ति करता है — चाहे वह उसे 'राम' कहे, 'शिव' कहे, 'ब्रह्म' कहे या 'आत्मा' कहे।
इस दृष्टिकोण से भक्ति एक गहन आत्म-अन्वेषण की प्रक्रिया है। इसमें साधक किसी मूर्त या कल्पित रूप का अनुसरण नहीं करता, बल्कि अपने ही भीतर के चैतन्य को जानने और उसमें स्थित होने का प्रयास करता है। यह भक्ति ही ऐसी है जो मन को शुद्ध करती है, अहंकार को मिटाती है और अन्ततः आत्मा को आत्मा में स्थित कर देती है। यही कारण है कि शंकराचार्य जैसे ज्ञानी भी कहते हैं कि भक्ति ही मोक्ष की प्राप्ति में सर्वश्रेष्ठ सामग्री है — क्योंकि ज्ञान, योग, कर्म — ये सभी तभी सार्थक होते हैं जब वे इस अनुसंधान में सहायक बनें।
अतः निष्कर्ष यह है कि भक्ति केवल भावना नहीं है, न ही केवल उपासना की क्रिया है, बल्कि यह अपने वास्तविक स्वरूप की ओर लौटने की गम्भीर साधना है। अपने आत्मस्वरूप को जानने, पहचानने और उसी में स्थित रहने की तीव्र आकांक्षा — यही भक्ति है, यही मुक्ति का द्वार है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!