"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 33वां श्लोक"
"गुरूपसत्ति और प्रश्नविधि"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
उक्तसाधनसम्पन्नस्तत्त्वजिज्ञासुरात्मनः ॥ ३३॥
उपसीदेद्गुरुं प्राज्ञं यस्माद्बन्धविमोक्षणम् ।
अर्थ:-उक्त साधन-चतुष्टय से सम्पन्न आत्मतत्त्व का जिज्ञासु प्राज्ञ (स्थितप्रज्ञ) गुरु के निकट जाय, जिससे उसके भव-बन्ध की निवृत्ति हो।
यह श्लोक ‘विवेकचूडामणि’ का 33वां श्लोक है, जिसमें आदि शंकराचार्य ने आत्मज्ञान प्राप्ति के मार्ग में गुरु की अनिवार्यता को स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है। श्लोक का तात्पर्य है कि वह साधक जो विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति (शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान) और मुमुक्षुत्व से सम्पन्न है — अर्थात जिसने साधन-चतुष्टय को अर्जित कर लिया है — वह आत्मतत्त्व को जानने की तीव्र जिज्ञासा रखता है। ऐसे जिज्ञासु को चाहिए कि वह एक प्राज्ञ, तत्वदर्शी गुरु के पास जाकर विनयपूर्वक उपस्थिति हो, क्योंकि वही गुरु उसके संसारबन्धन को काट सकता है और उसे आत्मस्वरूप की सिद्धि करा सकता है।
यहाँ 'उक्तसाधनसम्पन्नः' शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। केवल सामान्य उत्सुकता रखने वाला व्यक्ति नहीं, बल्कि वह साधक जो आत्मसाक्षात्कार के लिए आवश्यक चारों साधनों से युक्त है, वही आत्मज्ञान प्राप्त करने के योग्य है। ऐसे व्यक्ति में विवेक के माध्यम से सत्य और असत्य का भेद करने की क्षमता होती है, वैराग्य द्वारा वह नश्वर भोगों में राग नहीं रखता, शमादि गुणों के द्वारा उसका चित्त स्थिर और संयमित होता है, और मुमुक्षुत्व के द्वारा उसे बन्धनों से मुक्त होने की तीव्र आकांक्षा होती है।
'तत्त्वजिज्ञासुः' शब्द यह दर्शाता है कि साधक का उद्देश्य केवल धर्म, अर्थ, काम की सिद्धि नहीं है, वरन् वह परम सत्य की खोज में है। वह यह जानना चाहता है कि "मैं कौन हूँ?", "यह जगत क्या है?", और "मुक्ति का उपाय क्या है?" — ऐसे प्रश्न उसे भीतर से व्याकुल करते हैं। इस जिज्ञासा का समाधान किसी भी सामान्य व्यक्ति से नहीं हो सकता, इसके लिए ऐसे गुरु की आवश्यकता है जो स्वयं आत्मसाक्षात्कारी हो, जिसने ब्रह्म का साक्षात्कार किया हो और जो शास्त्रों में निपुण हो। ऐसे गुरु को 'प्राज्ञ' कहा गया है — वह न केवल ज्ञानी है, बल्कि उसकी बुद्धि स्थिर है, वह स्थितप्रज्ञ है।
श्लोक में 'उपसीदेत्' शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ है विनम्रता पूर्वक जाना। यह केवल शारीरिक रूप से गुरु के समीप जाना नहीं है, बल्कि मानसिक रूप से भी समर्पित होना है। अहंकार, संशय और आत्मप्रशंसा का त्याग कर शिष्य को गुरु के वचनों को श्रद्धा पूर्वक ग्रहण करना होता है। तभी वह ज्ञान संप्रेषण की प्रक्रिया में पात्र बनता है।
अंत में 'यस्मात् बन्धविमोक्षणम्' वाक्य इस बात को स्पष्ट करता है कि गुरु के पास जाने का उद्देश्य केवल आध्यात्मिक चर्चा या सांस्कृतिक जानकारी प्राप्त करना नहीं है, बल्कि जीवन के मूल बन्धनों से छूटना है — यह बन्धन अज्ञान के कारण उत्पन्न हुए हैं और केवल आत्मबोध से ही समाप्त हो सकते हैं। गुरु ही वह मार्गदर्शक है जो शिष्य को उसके स्वरूप का बोध कराकर उसे बन्धनों से मुक्त कर सकता है।
इस प्रकार, यह श्लोक स्पष्ट करता है कि आत्मज्ञान के पथ पर साधन-चतुष्टय की सिद्धि और तत्पश्चात एक प्राज्ञ गुरु की शरणागति — यह दोनों अत्यंत आवश्यक हैं। बिना गुरु के मार्गदर्शन के आत्मतत्त्व की अनुभूति संभव नहीं है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!