"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 34, 35, 36वां श्लोक"
"गुरूपसत्ति और प्रश्नविधि"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतो यो ब्रह्मवित्तमः ॥ ३४॥
ब्रह्मण्युपरतः शान्तो निरिन्धन इवानलः ।
अहैतुकदयासिन्धुर्बन्धुरानमतां सताम् ॥ ३५ ॥
तमाराध्य गुरुं भक्त्या प्रह्वप्रश्रयसेवनैः ।
प्रसन्नं तमनुप्राप्य पृच्छेज्ज्ञातव्यमात्मनः ॥ ३६ ॥
अर्थ:-जो श्रोत्रिय हों, निष्पाप हों, कामनाओं से शून्य हों, ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ हों, ब्रह्मनिष्ठ हों, ईंधनरहित अग्नि के समान शान्त हों, अकारण दयासिन्धु हों और प्रणत (शरणापन्न) सज्जनों के बन्धु (हितैषी) हों उन गुरुदेव की विनीत और विनम्र सेवा से भक्तिपूर्वक आराधना कर के, उनके प्रसन्न होने पर निकट जाकर अपना ज्ञातव्य इस प्रकार पूछे-
विवेकचूडामणि की इस श्लोकमाला में शिष्य को गुरु के स्वरूप, उसकी विशेषताओं, और गुरुसेवा की पद्धति का निर्देश दिया गया है। गुरु का चयन, वेदान्तमार्ग में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चरण होता है, क्योंकि शिष्य स्वयं से ब्रह्मज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकता, जब तक वह ऐसे गुरु की शरण न ले जो स्वयं ब्रह्मज्ञान में स्थित हो, शास्त्रज्ञ हो और पूर्णतः निष्काम तथा शांत हो।
प्रथम श्लोक (३४) में गुरु के गुण बताए गए हैं। “श्रोत्रियः” का अर्थ है – वह जो वेदों और उपनिषदों के द्वारा प्रतिपादित ब्रह्मविद्या में निपुण हो, जिसने शास्त्रों का विधिवत अध्ययन किया हो, और उन्हें अपने आचरण में उतारा हो। केवल शास्त्रों को रट लेने वाला गुरु नहीं कहा जा सकता, बल्कि वह श्रोत्रिय कहलाता है जो शास्त्रार्थ और अनुभव – दोनों का समन्वय रखता है।
“अवृजिनः” अर्थात जो निष्पाप हो, जिसमें कोई अधार्मिक या छलयुक्त प्रवृत्ति न हो। वह आचरण से भी पवित्र हो और जिसका जीवन सदा धर्म और सत्य पर आधारित हो। ऐसा व्यक्ति ही शिष्य को सही दिशा दे सकता है।
“अकामहतः” अर्थात जो कामनाओं से प्रेरित न हो। जो इन्द्रिय-सुखों की इच्छा से मुक्त हो। गुरु यदि स्वयं कामनाओं से ग्रसित होगा, तो वह शिष्य को भी उन बन्धनों में ही बाँध देगा। इसलिए गुरु को पूर्णतः निराकांक्षी होना चाहिए।
“यो ब्रह्मवित्तमः” – जो ब्रह्मवेत्ताओं में भी श्रेष्ठ हो। इसका तात्पर्य यह है कि वह गुरु केवल ज्ञान का अधिकारी नहीं, बल्कि ब्रह्म में स्थित भी हो। ऐसा ब्रह्मज्ञानी जो ब्रह्म को केवल शब्दों में नहीं, बल्कि साक्षात अनुभव में जानता हो। ‘ब्रह्मवित्’ वह होता है जो ब्रह्म को जानता है, पर ‘ब्रह्मवित्तमः’ वह है जो उस ज्ञान में ही समाहित हो गया हो – वह परम गुरु है।
इसके बाद श्लोक (३५) में गुरु की अन्य दिव्य विशेषताओं का वर्णन है – “ब्रह्मण्युपरतः” अर्थात जो पूर्णतः ब्रह्म में स्थिर हो गया हो, जिसकी चित्तवृत्ति संसार से निवृत्त होकर केवल ब्रह्म में ही लीन हो। यह अवस्था केवल अध्ययन से नहीं आती, इसके लिए दीर्घकालीन साधना और आत्मविज्ञान आवश्यक होता है।
“शान्तः” – वह शान्त हो, अर्थात राग, द्वेष, भय, मोह आदि से रहित। उसकी वृत्तियाँ स्थिर हों। जैसे सागर के गहरे जल की गहराई सदा शांत रहती है, वैसे ही उसका चित्त बाह्य हलचलों से अप्रभावित हो। और “निरिन्धन इवानलः” – जैसे अग्नि बिना ईंधन के शांत हो जाती है, वैसे ही गुरु भी बिना संसार के ‘ईंधन’ (कामनाओं, स्पर्शों, भोगों) के स्वभावतः शान्त रहता है।
“अहैतुकदयासिन्धुः” – वह अकारण करुणा का सागर हो। जो प्रत्येक प्राणी में आत्मा का दर्शन कर, उनकी दुःस्थिति पर स्वाभाविक करुणा करता हो, भले ही कोई उससे अपेक्षा न भी रखे। उसकी कृपा किसी बाह्य कारण पर आधारित न हो, बल्कि उसकी आत्मदृष्टि और निर्मलता ही करुणा का कारण हो।
“बन्धुः आनमतां सताम्” – वह सज्जनों के लिए सच्चा बन्धु हो। विशेष रूप से उन साधकों के लिए, जो नम्र हैं, जिनमें अहंकार नहीं है, जो आत्मज्ञान की पिपासा से भरपूर हैं। ऐसे शरणागतों के लिए वह गुरु जैसे मित्र, पिता, मार्गदर्शक और सखा – सब कुछ होता है।
अगले श्लोक (३६) में यह बताया गया है कि ऐसे गुरु की सेवा कैसे की जाए। यह कोई साधारण सेवा नहीं है, यह सेवा शिष्य के जीवन का परम ध्येय बन जाती है – “तमाराध्य गुरुं भक्त्या” – ऐसे सद्गुरु की ‘भक्ति’ से आराधना करनी चाहिए। केवल बाह्य सेवाएँ नहीं, बल्कि अन्तर से श्रद्धा, समर्पण और विश्वासपूर्वक सेवा आवश्यक है।
“प्रह्वप्रश्रयसेवनैः” – प्रह्वता का अर्थ है विनम्रता, और प्रश्रय का अर्थ है आदर तथा आत्मनिवेदन। सेवा का भाव यह हो कि शिष्य अपने अस्तित्व को गुरु के चरणों में समर्पित कर दे। इसमें अहंकार का स्थान नहीं होता। यह सेवा आत्मविज्ञान के लिये की जाती है, इसलिए यह सेवा भी तपस्वरूप है।
“प्रसन्नं तमनुप्राप्य” – जब गुरु इन सेवाओं से प्रसन्न हो जाएँ, तब उनके पास जाकर अपना प्रश्न पूछे। यह ‘प्रश्न’ कोई सांसारिक या लौकिक प्रश्न नहीं होता, बल्कि आत्मा, ब्रह्म, माया, बन्धन, मोक्ष – इन सभी गूढ़ विषयों से सम्बन्धित होता है। गुरु जब संतुष्ट होते हैं, तब ही वह दिव्य ज्ञान देते हैं। ज्ञान किसी परीक्षा या तर्क से प्राप्त नहीं किया जा सकता, वह तो कृपा का फल होता है।
“पृच्छेत् ज्ञातव्यमात्मनः” – तब शिष्य वह पूछे, जो आत्मा के विषय में जानना आवश्यक है। आत्मा क्या है? उसका स्वरूप कैसा है? ब्रह्म के साथ उसका सम्बन्ध क्या है? बन्धन कैसे छूटेगा? मुक्ति कैसे प्राप्त होगी? यह ‘ज्ञातव्य’ वह तत्त्व है, जिसके लिए समस्त वेद-शास्त्र हैं, समस्त साधना है – वह आत्मा का ज्ञान।
यह सम्पूर्ण शिक्षाप्रणाली ‘वेदान्त’ की गुरु-शिष्य परम्परा का मूल है। शिष्य यदि इन मापदण्डों के अनुरूप श्रद्धा, भक्ति, सेवा और विनम्रता से युक्त हो, तो गुरु की कृपा से वह ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर सकता है। परन्तु यह ध्यान देने योग्य बात है कि गुरु के इन गुणों को पहचानना, और स्वयं को योग्य बनाना – यह शिष्य का प्रारम्भिक उत्तरदायित्व है।
इस श्लोकमाला का अन्तर्निहित संकेत यही है कि आत्मज्ञान का मार्ग सरल नहीं है, किन्तु यदि गुरु योग्य हो और शिष्य विनम्रता तथा भक्ति से युक्त हो, तो यह ज्ञान सहज ही फलित होता है। गुरु वह दीपक है जो अज्ञान के अंधकार में प्रकाश भरता है, पर दीपक से प्रकाश लेने के लिए शिष्य को उसके निकट जाना होता है, उसे प्रज्वलित करना होता है, और उसे सावधानीपूर्वक अपने जीवन में स्थापित करना होता है।
इस प्रकार, इन श्लोकों में गुरु के स्वरूप, शिष्य के कर्तव्य, सेवा की विधि और ज्ञानप्राप्ति की प्रक्रिया का अत्यन्त सुन्दर, स्पष्ट और दिव्य निरूपण किया गया है। यह गुरु-शिष्य संवाद वेदान्त की आत्मा है – क्योंकि ब्रह्मज्ञान शब्दों से नहीं, अनुभव और कृपा से प्राप्त होता है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!