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शुक्रवार, 27 जून 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 37वां श्लोक"


"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 37वां श्लोक"

"गुरूपसत्ति और प्रश्नविधि"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

स्वामिन्नमस्ते नतलोकबन्धो कारुण्यसिन्धो पतितं भवाब्धौ ।

मामुद्धरात्मीयकटाक्षदृष्ट्या ऋज्व्यातिकारुण्यसुधाभिवृष्ट्या ॥ ३७ ॥

अर्थ:- हे शरणागतवत्सल, करुणासागर, प्रभो! आपको नमस्कार है। संसार-सागर में पड़े हुए मेरा आप अपनी सरल तथा अतिशय कारुण्यामृतवर्षिणी कृपा कटाक्ष से उद्धार कीजिये।

यह श्लोक विवेकचूड़ामणि के ३७वें श्लोक में आता है, जिसमें शिष्य की करुणा से भरी हुई विनम्र प्रार्थना को दर्शाया गया है। यहाँ एक जिज्ञासु अपने गुरु या परमात्मा से गहन करुणा और कृपा की याचना कर रहा है। वह स्वयं को संसार रूपी भवसागर में डूबा हुआ मानते हुए गुरु या भगवान से निवेदन करता है कि वे उसे अपनी कृपा दृष्टि से इस बंधन से मुक्त करें।

श्लोक की पहली पंक्ति “स्वामिन् नमस्ते नतलोकबन्धो, कारुण्यसिन्धो पतितं भवाब्धौ” में वह ईश्वर को या सद्गुरु को संबोधित करता है – “हे स्वामी! आपको मेरा नमस्कार है।” वह उन्हें “नतलोकबन्धु” कहता है, अर्थात् उन लोगों के भी बंधु जो पूर्णतः समर्पण करके आपकी शरण में आए हैं। इसका अर्थ यह है कि वह केवल नियमों का पालन करने वाले या ज्ञानी जनों के ही नहीं, बल्कि उन दीन-हीन, अज्ञानी, किंतु शरणागत भक्तों के भी परम आश्रय हैं। “कारुण्यसिन्धो” शब्द का अर्थ है – करुणा के महासागर। जब कोई भक्त अपनी असहाय स्थिति को अनुभव करता है, तब उसे यह बोध होता है कि इस भवसागर से केवल ज्ञान, बल या पुरुषार्थ के द्वारा नहीं, अपितु प्रभु की अथाह कृपा से ही पार पाया जा सकता है।

दूसरी पंक्ति “मामुद्धरात्मीयकटाक्षदृष्ट्या, ऋज्व्यातिकारुण्यसुधाभिवृष्ट्या” में शिष्य कहता है – “हे प्रभो! मुझे अपनी आत्मीय कटाक्ष दृष्टि से उद्धार कीजिए।” यह ‘कटाक्षदृष्टि’ सामान्य दृष्टि नहीं, अपितु वह दृष्टि है जो सहज है, निर्मल है, और अनन्य करुणा से परिपूर्ण है। ‘ऋज्व्या’ शब्द का अर्थ है – सरल, निष्कपट, जिसमें कोई द्वैत या भेद नहीं है। ऐसी सीधी, निष्कलुष कृपा दृष्टि ही आत्मा का उद्धार कर सकती है। यहाँ 'अतिकारुण्यसुधाभिवृष्ट्या' का अर्थ है – अत्यंत करुणा रूप अमृत की वर्षा। अर्थात् शिष्य चाहता है कि प्रभु अपनी कृपा वर्षा से उसके ऊपर करुणा की अमृतवर्षा करें जिससे वह अज्ञान, मोह, और दुःख के बंधनों से मुक्त होकर आत्मज्ञान प्राप्त कर सके।

यह श्लोक उस आत्मसमर्पण की चरम अवस्था को प्रकट करता है जहाँ शिष्य अपने पुरुषार्थ का नहीं, अपितु ईश्वर की कृपा का आश्रय लेता है। इस प्रकार की प्रार्थना अद्वैत वेदांत में भले ही प्रारंभिक साधन मानी जाती हो, किन्तु यह आत्मा की सच्ची पुकार होती है। जब शिष्य पूर्ण नम्रता और आर्तता से ईश्वर या गुरु से करुणा की याचना करता है, तब ही उसके भीतर अहंकार गलता है और आत्मज्ञान के लिए पात्रता उत्पन्न होती है।

इस श्लोक का सार यही है कि संसार रूपी भवसागर में पड़ी आत्मा को उद्धार तभी मिलता है जब वह परम करुणामय के प्रति सम्पूर्ण समर्पण और भाव-भरी पुकार करता है। गुरु की दृष्टि, जो केवल कृपा से ही देखती है, वही उस आत्मा को ऊपर उठा सकती है। यही दृष्टि अमृत समान है, और यही दृष्टि शिष्य के जीवन को मोक्ष की ओर ले जाती है।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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