"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 38वां श्लोक"
"गुरूपसत्ति और प्रश्नविधि"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
दुर्वारसंसारदवाग्नितप्तं दोधूयमानं दुरदृष्टवातैः । भीतं प्रपन्नं परिपाहि मृत्योः शरण्यमन्यं यदहं न जाने ॥ ३८ ॥
अर्थ:-जिससे छुटकारा पाना अति कठिन है उस संसार-दावानल से दग्ध तथा दुर्भाग्यरूपी प्रबल प्रभंजन (आँधी) से अत्यन्त कम्पित और भयभीत हुए मुझ शरणागत की आप मृत्यु से रक्षा कीजिये; क्योंकि इस समय मैं और किसी शरण देने वाले को नहीं जानता।
यह श्लोक विवेकचूड़ामणि के उन मार्मिक क्षणों में से एक है जब शिष्य अत्यन्त विनम्रता और भय के भाव से गुरु के चरणों में पूर्ण समर्पण करता है। वह संसार की भयावहता और अपनी असहाय स्थिति को स्पष्ट करते हुए गुरु से कृपा की याचना करता है। शिष्य कहता है कि वह इस संसार रूपी अग्नि से दग्ध हो चुका है — यह संसार एक भयंकर दावानल (वन की आग) के समान है जो प्रतिक्षण जीव को जलाता रहता है। यह अग्नि बाह्य नहीं है, यह आत्मा के अज्ञान से उत्पन्न हुई वह ज्वाला है जो जन्म-मरण के चक्र, सुख-दुःख के द्वंद्व, वासनाओं की आग, और ममता-मोह के ताप से निरंतर जलती रहती है। इस अग्नि की तीव्रता से शिष्य संतप्त हो चुका है।
शिष्य आगे कहता है कि वह केवल इस दावानल से ही नहीं जला है, बल्कि "दुरदृष्ट वायु" — अर्थात दुर्भाग्य, अशुभ संस्कार, दुष्ट वासनाएँ और कर्म के प्रतिकूल प्रभाव रूपी आँधियाँ भी उसे चारों ओर से झकझोर रही हैं। ये अशुभ वासनाएँ और संस्कार उसे कभी इधर, कभी उधर भटका रहे हैं। परिणामस्वरूप उसका मन स्थिर नहीं रह पाता, और वह अस्थिर, भयग्रस्त तथा कातर हो गया है। वह अनुभव करता है कि जीवन की इस विकट परिस्थिति में वह अकेला, निर्बल और पूर्णतः असमर्थ है। संसार के ताप और अपने ही अज्ञान की आँधी से वह थक चुका है और अब किसी ठोस, चिरस्थायी शरण की खोज कर रहा है।
इसलिए वह गुरु के चरणों में सिर नवाकर निवेदन करता है — "भीतः प्रपन्नं परिपाहि मृत्युः" — मैं भयभीत होकर आपकी शरण में आया हूँ। कृपया मेरी रक्षा कीजिए, विशेषकर इस मृत्यु से। यहाँ मृत्यु का अर्थ केवल शरीर की समाप्ति नहीं है, बल्कि आत्मा की अनादि अनन्त भ्रांति — जो बार-बार जन्म-मरण में डालती है — उससे है। शिष्य समझ चुका है कि जब तक आत्मबोध नहीं होता, तब तक यह संसार-मरण का चक्र समाप्त नहीं होता। इसीलिए वह गुरु से विनती करता है कि आप ही मुझे इस मृत्यु से उबारें। "शरण्यमन्यं यदहं न जाने" — मैं किसी अन्य को शरणदाता नहीं जानता। यह पूर्ण समर्पण की चरम अवस्था है।
यह श्लोक भक्ति, विवेक, वैराग्य और मुमुक्षुत्व का अद्वितीय संगम है। इसमें शिष्य का हृदय विदीर्ण हो चुका है और वह जान चुका है कि संसार की कोई भी वस्तु उसे शान्ति नहीं दे सकती। केवल आत्मबोध, केवल ब्रह्मज्ञान ही उसे इस दावानल से मुक्त कर सकता है। परन्तु वह अपने आप इसे प्राप्त नहीं कर सकता, इसलिए वह गुरु की करुणा की याचना करता है। यह श्लोक दर्शाता है कि जब शिष्य सम्पूर्ण अहंकार त्याग कर भय और श्रद्धा से पूर्ण होकर गुरु के चरणों में गिरता है, तभी गुरु की कृपा सक्रिय होती है और तभी आत्मज्ञान की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है।
इस प्रकार यह श्लोक न केवल शिष्य के आन्तरिक कष्टों का सजीव चित्रण है, बल्कि उस पूर्ण समर्पण की घोषणा भी है जो आत्मज्ञान की पूर्वशर्त है। शिष्य अब मार्ग नहीं माँगता, वह केवल कृपा चाहता है; वह ज्ञान नहीं माँगता, वह केवल शरण चाहता है। और जब यह शरण सच्चे हृदय से ली जाती है, तभी गुरु उसकी रक्षा करते हैं और आत्मा को अज्ञान-मृत्यु से मुक्त करते हैं। यही इस श्लोक का गूढ़ और महान संदेश है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!