"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 39वां श्लोक"
"गुरूपसत्ति और प्रश्नविधि"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
शान्ता महान्तो निवसन्ति सन्तो वसन्तवल्लोकहितं चरन्तः ।
तीर्णाः स्वयं भीमभवार्णवं जना-नहेतुनान्यानपि तारयन्तः ॥ ३९॥
अर्थ:-भयंकर संसार-सागर से स्वयं उत्तीर्ण हुए और अन्य जनों को भी बिना कारण ही तारते तथा लोकहित का आचरण करते अति शान्त महापुरुष ऋतुराज वसन्त के समान निवास करते हैं।
आदि शंकराचार्य जी द्वारा रचित विवेकचूडामणि का यह श्लोक उन दिव्य पुरुषों का वर्णन करता है जो आत्मसाक्षात्कार कर चुके होते हैं और जिन्होंने संसार-सागर रूपी जन्म-मरण के चक्र को पार कर लिया होता है। ऐसे महापुरुष, जिन्हें "शान्त", "महान्त" और "सन्त" कहा गया है, वे अपनी स्थिति में पूर्णतः स्थित रहते हुए भी लोक के कल्याण के लिए कार्य करते हैं। वे वसन्त ऋतु के समान होते हैं जो बिना किसी भेदभाव के समस्त संसार को अपनी सौम्यता, सुगंध और शीतलता प्रदान करता है। इसी प्रकार ये संत भी समाज में निवास करते हुए, बिना किसी अपेक्षा या कारण के, दूसरों को भी भवसागर से पार कराने का प्रयत्न करते हैं।
शब्द “शान्ता” यह बताता है कि ऐसे महापुरुष की वृत्ति पूर्णतः शान्त होती है — वे राग-द्वेष, मोह, क्रोध आदि से रहित होते हैं। उनके अंतःकरण में कोई हलचल नहीं होती, क्योंकि उन्होंने अपने आत्मस्वरूप का साक्षात्कार कर लिया है। “महान्तः” का अर्थ है महान व्यक्ति — वे महान इस दृष्टि से हैं कि उन्होंने न केवल स्वयं को मुक्त किया है, बल्कि दूसरों को भी मुक्त करने का संकल्प लिया है। “निवसन्ति” दर्शाता है कि वे सामान्य लोगों के बीच में ही रहते हैं, किसी पर्वत, कन्दराओं, या निर्जन स्थलों में नहीं, बल्कि समाज में रहते हुए भी समाज के दोषों से अछूते रहते हैं।
"सन्तो वसन्तवद्" — जैसे वसन्त ऋतु बिना किसी भेद के सम्पूर्ण प्रकृति को सौंदर्य, सरसता, और जीवन प्रदान करती है, उसी प्रकार ये सन्त जन भी किसी की जाति, धर्म, लिंग, या वर्ण नहीं देखते; वे तो केवल उस आत्मा को देखते हैं जो हर जीव में समान रूप से विराजमान है। वे हर एक को प्रेम और करुणा से देखते हैं और उन्हें आत्मबोध की ओर प्रेरित करते हैं। “तीर्णाः स्वयं भीम भव-अर्णवं” — वे स्वयं इस अत्यन्त भयानक संसार रूपी समुद्र से पार हो चुके होते हैं, जहाँ जन्म, मरण, दुख, मोह आदि लहरें भयंकर रूप से मनुष्य को डुबोती रहती हैं।
विशेष बात यह है कि वे “जनानहेतुनान्याञपि तारयन्तः” — बिना किसी स्वार्थ या कारण के अन्य लोगों को भी भवसागर से पार कराने का प्रयत्न करते हैं। यह उनकी निःस्वार्थ सेवा और करुणा की चरम सीमा है। वे गुरु रूप में, उपदेशक रूप में, अथवा समाज के सामान्य सेवक के रूप में कार्य करते हुए दूसरों को ज्ञान और भक्ति का मार्ग दिखाते हैं। उनका उद्देश्य केवल आत्मस्वरूप में स्थित रहना ही नहीं, अपितु दूसरों को भी उसी अवस्था में ले जाना होता है।
इस प्रकार यह श्लोक न केवल ज्ञानी पुरुषों की महिमा का वर्णन करता है, बल्कि यह हमें भी प्रेरित करता है कि हम केवल अपने मोक्ष तक सीमित न रहें, बल्कि समाज के कल्याण के लिए कार्य करें। यह श्लोक आदर्श आत्मज्ञानी की छवि प्रस्तुत करता है — एक ऐसा संत जो मुक्त होकर भी समाज के प्रति उत्तरदायी है और वसन्त के समान अपने जीवन से दूसरों को आनंद, ज्ञान और शांति प्रदान करता है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!