"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 40वां श्लोक"
"गुरूपसत्ति और प्रश्नविधि"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अयं स्वभावः स्वत एव यत्पर-श्रमापनोदप्रवणं महात्मनाम् ।
सुधांशुरेष स्वयमर्ककर्कश-प्रभाभितप्तामवति क्षितिं किल ॥ ४० ॥
अर्थ:-महात्माओं का यह स्वभाव ही है कि वे स्वतः ही दूसरों का श्रम दूर करने में प्रवृत्त होते हैं। सूर्य के प्रचण्ड तेज से सन्तप्त पृथ्वीतल को चन्द्रदेव स्वयं ही शान्त कर देते हैं।
महात्माओं का स्वभाव इस श्लोक में अत्यंत सुंदर उपमा के माध्यम से स्पष्ट किया गया है। जैसे चन्द्रमा की शीतल किरणें सूर्य के प्रचंड ताप से तप्त पृथ्वी को स्वतः ही शांति प्रदान करती हैं, वैसे ही महापुरुष अपने सहज स्वभाव से दूसरों के कष्ट और श्रम को हरने में संलग्न रहते हैं। उनका यह आचरण किसी बाहरी प्रेरणा या स्वार्थ से उत्पन्न नहीं होता, बल्कि उनकी अंतःकरण की करुणा और अहेतुक दया का स्वाभाविक परिणाम होता है। विवेकचूडामणि में बार-बार इस बात पर बल दिया गया है कि जो व्यक्ति आत्मज्ञान को प्राप्त कर चुका होता है, उसकी दृष्टि में समस्त प्राणी अपने ही स्वरूप में अभिन्न प्रतीत होते हैं। इस अभिन्नता की अनुभूति से उनमें स्वार्थ का लेशमात्र भी नहीं रहता और वे अनायास ही लोककल्याण में प्रवृत्त हो जाते हैं।
श्लोक में “अयं स्वभावः स्वत एव” कह कर स्पष्ट किया गया है कि यह प्रवृत्ति किसी बाहरी कारण या प्रलोभन से नहीं होती। जैसे सूर्य का ताप देना उसका स्वभाव है, वैसे ही चन्द्रमा का शीतल करना भी उसका सहज स्वभाव है। इसी प्रकार महात्माओं की करुणा, उनकी सेवा भावना और दूसरों की पीड़ा को देखकर उनके हृदय में उत्पन्न होने वाला द्रवित भाव उनके आध्यात्मिक विकास और आत्मज्ञान का सहज प्रसाद होता है। उन्हें किसी से प्रशंसा या प्रतिफल की अपेक्षा नहीं होती। वे संसार में वसन्त ऋतु के समान अमृतवर्षा करने के लिए अवतरित होते हैं।
यहाँ सूर्य और चन्द्रमा की उपमा अत्यंत सार्थक है। सूर्य अपने तेज से संसार को ऊर्जा देता है, किंतु कभी-कभी उसकी अधिकता से कष्ट भी होता है। चन्द्रमा उस कष्ट को दूर करता है। इसी प्रकार संसार में अनेक प्रकार की पीड़ाएं, संघर्ष और श्रम हैं, जिन्हें महात्मा अपनी सहज उपस्थिति से शमन करते हैं। उनके समागम से ही जीवन में शांति, स्थैर्य और संतोष की भावना उत्पन्न होती है।
विवेकचूडामणि में महात्माओं की भूमिका एक पथ-प्रदर्शक दीपक के रूप में भी बताई गई है। वे स्वयं संसार-सागर से पार उतर चुके होते हैं और दूसरों को भी पार लगाने में तत्पर रहते हैं। उनके आचरण में किसी प्रकार की बनावट या दंभ नहीं होता। वे अनायास ही प्रेम और करूणा के स्रोत होते हैं। उनकी उपस्थिति से ही व्यक्ति के अंतर्मन में आत्मज्ञान के बीज अंकुरित होते हैं।
यह श्लोक हमें यह भी स्मरण कराता है कि यदि हम भी अपने भीतर करुणा और निस्वार्थ सेवा का भाव विकसित करें, तो हम अपने जीवन में महात्माओं के गुणों की कुछ झलक प्राप्त कर सकते हैं। संसार की पीड़ा को कम करना, दूसरों को सुकून देना और बिना किसी स्वार्थ के उनके श्रम का बोझ हल्का करना ही सच्ची आध्यात्मिकता का परिचायक है। इस प्रकार यह श्लोक केवल महात्माओं की महिमा ही नहीं, बल्कि हमारे लिए भी प्रेरणा का स्रोत है कि हम अपने हृदय को निर्मल कर दूसरों के हित में स्वतः प्रवृत्त हों।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!