"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 41वां श्लोक"
"गुरूपसत्ति और प्रश्नविधि"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
ब्रह्मानन्दरसानुभूतिकलितैः पूतैः सुशीतैः सितै-र्युष्मद्वाक्कलशोज्झितैः श्रुतिसुखैर्वाक्यामृतैः सेचय । संतप्तं भवतापदावदहनज्वालाभिरेनं प्रभो धन्यास्ते भवदीक्षणक्षणगतेः पात्रीकृताः स्वीकृताः ॥ ४१ ॥
अर्थ:-हे प्रभो! प्रचण्ड संसार-दावानल की ज्वाला से तपे हुए इस दीन-शरणापन्न को आप अपने ब्रह्मानन्दरसानुभव से युक्त परम पुनीत, सुशीतल, निर्मल और वाक्-रूपी स्वर्ण कलश से निकले हुए श्रवण सुखद वचनामृतों से सींचिये (अर्थात् इसके ताप को शान्त कीजिये)। वे धन्य हैं, जो आपके एक क्षण के करुणामय दृष्टि पथ के पात्र होकर अपना लिये गये हैं।
यह श्लोक विवेकचूडामणि का 41वां श्लोक है, जिसमें साधक भगवान से अत्यन्त विनम्रतापूर्वक प्रार्थना कर रहा है। वह अपनी दीन-हीन अवस्था का वर्णन करता है और कहता है कि “हे प्रभो! मैं इस संसाररूपी प्रचण्ड दावानल की ज्वाला में दग्ध हो रहा हूं। यह संसार जन्म-मरण और दुखों का अग्निकुण्ड है, जिसमें जीव निरन्तर जलता रहता है।” साधक अपने आप को पूर्णतया शरणागत बताता है कि “मैं आपकी शरण में आया हूं। मेरी कोई अपनी सामर्थ्य नहीं है, कोई उपाय नहीं है जिससे इस ताप से मुक्ति पा सकूं।” वह भगवान से अनुग्रह की याचना करता है कि “हे प्रभो! अपने ब्रह्मानन्द रसानुभव से पूरित वचनामृत रूपी शीतल जल से मुझे सींच दीजिए।”
श्लोक में कहा गया है कि प्रभु की वाणी स्वर्णकलश से झरने वाली निर्मल अमृतधारा के समान है। यह वाणी न केवल ज्ञान प्रदान करती है, अपितु हृदय में तत्काल शान्ति और तृप्ति का संचार कर देती है। “श्रुति सुखैः वाक्यामृतैः”—वे वचनामृत इतने मधुर हैं कि सुनने मात्र से ही जीवात्मा को अलौकिक शांति और आनंद की प्राप्ति होती है। इन वचनों में ब्रह्मानन्द रस का अनुभव समाहित है, क्योंकि वे केवल शब्द नहीं, परम सत्य का साक्षात प्राकट्य हैं। जब जीव उनकी धारा में स्नात होता है, तब उसके भीतर छुपी हुई शुद्ध चेतना जागृत होती है और अहंकार, तृष्णा, वासनाओं की अग्नि शान्त होने लगती है।
यहाँ साधक कहता है कि वे वचन पवित्र हैं, सुशीतल हैं, निर्मल हैं। उनका प्रभाव ऐसा है जैसे जलते हुए व्यक्ति पर ठंडी, निर्मल अमृतवर्षा हो जाए। संसार के ताप को शांत करने के लिए किसी साधारण उपाय की आवश्यकता नहीं, बल्कि गुरु की वाणी, उपदेश और कृपा ही सर्वश्रेष्ठ उपाय है। साधक के अंतःकरण में यह साक्षात्कार होता है कि केवल ईश्वरकृपा और ज्ञानोपदेश ही उसे भवदावानल से मुक्त कर सकते हैं। संसार-दावानल कोई भौतिक अग्नि नहीं है, यह हमारे भीतर काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार और अज्ञान का ताप है। जब तक आत्मा अपने असली स्वरूप का अनुभव नहीं करती, यह ताप शांत नहीं होता।
श्लोक के अंतिम भाग में साधक कहता है—धन्यास्ते भवदीक्षणक्षणगतेः पात्रीकृताः स्वीकृताः—वे महान भाग्यशाली हैं, जिन्हें प्रभु की एक क्षण की भी करुणा दृष्टि प्राप्त हुई। एक क्षण की दृष्टिपात ही उनके उद्धार के लिए पर्याप्त है। भगवान की कृपा का अनुभव जिसे हो जाए, वह धन्य है, क्योंकि वह मोक्ष का अधिकारी हो जाता है। यह दृष्टिपात साधक को आन्तरिक शुद्धता और ब्रह्मानन्द का रस प्रदान करता है। इस श्लोक में भक्त की विनम्रता, करुणा की याचना और गुरु-वाणी में परम आस्था का अद्भुत उदाहरण है। यहाँ उपदेश है कि जब तक अहंकार त्याग कर पूर्ण शरणागति का भाव नहीं आता, तब तक यह संसार का ताप नष्ट नहीं होता। अतः साधक को चाहिए कि वह गुरु और भगवान के ज्ञानामृत का सेवन कर अपने अंतःकरण को शीतल और निर्मल बनाए।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!