"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 42वां श्लोक"
"गुरूपसत्ति और प्रश्नविधि"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
कथं तरेयं भवसिन्धुमेतं का वा गतिर्मे कतमोऽस्त्युपायः।
जाने न किञ्चित्कृपयाव मां भो संसारदुःखक्षतिमातनुष्व
॥४२॥
अर्थ:-'मैं इस संसार-समुद्र को कैसे तरूँगा ? मेरी क्या गति होगी ? उसका क्या उपाय है?'- यह मैं कुछ नहीं जानता। प्रभो! कृपया मेरी रक्षा कीजिये और मेरे संसार-दुःख के क्षय का आयोजन कीजिये।
यह श्लोक विवेकचूडामणि का अत्यन्त करुणापूर्ण और विनम्र प्रार्थना-रूप निवेदन है। इसमें शिष्य अपनी सम्पूर्ण विवशता और असमर्थता व्यक्त करता है। वह कहता है – “मैं इस संसार रूपी अगाध, असीम समुद्र को कैसे पार करूँगा, इसका कोई उपाय मुझे ज्ञात नहीं है। मेरी क्या गति होगी, अर्थात् मेरा क्या होगा, मुझे कौन सा मार्ग अपनाना चाहिए, कौन सी साधना करनी चाहिए – इसका भी कुछ ज्ञान नहीं है। मैं सर्वथा अज्ञानी और असहाय हूँ।” यह शिष्य के अन्तःकरण की गहन पीड़ा, उसकी जिज्ञासा और गुरुकृपा के प्रति उसकी सम्पूर्ण आश्रित-भावना को प्रकट करता है।
यहाँ भवसिन्धु अर्थात् संसार-समुद्र का उल्लेख किया गया है। इस संसार का उपमा सागर से दी जाती है क्योंकि इसकी गहराई का अनुमान नहीं किया जा सकता, इसकी लहरें अनवरत आती रहती हैं, और इसकी धाराएँ जीव को डुबा देने में सक्षम हैं। कामना, वासना, अहंकार, मोह, राग-द्वेष, तृष्णा आदि विकार इसकी लहरों के समान हैं, जो बार-बार जीव को भ्रम में डालते हैं। साधारण मनुष्य इन लहरों से घबरा जाता है और उसमें पार जाने का सामर्थ्य नहीं होता।
“कथं तरेयं भवसिन्धुमेतम्”— यह प्रश्न आत्मविज्ञान की जिज्ञासा की चरम अवस्था को प्रकट करता है। साधक अब किसी सांसारिक उपाय की ओर नहीं देखता, वह जानता है कि संसार के साधनों से इस भवसिन्धु का पारावार नहीं होता। इसलिए वह कहता है— “मैं कुछ नहीं जानता।” यही जिज्ञासा और विनम्रता आगे चलकर शरणागति का स्वरूप बनती है।
“का वा गतिर्मे कतमोऽस्त्युपायः”— “मेरी क्या गति होगी?” यह आत्मा की व्यथा है। जब साधक को अहंकार शून्यता प्राप्त होती है और अनुभव होता है कि अपने बल से कुछ संभव नहीं, तब वह गुरुकृपा को ही अन्तिम आश्रय मान लेता है। “कतमोऽस्त्युपायः”— “कौन उपाय है”— यह स्वीकारोक्ति करती है कि कोई उपाय ज्ञात नहीं। यह भी ज्ञान का लक्षण है कि साधक जान ले कि अपनी बुद्धि और शक्ति पर्याप्त नहीं।
“जाने न किञ्चित्”— यह अद्वैत वेदांत की साधना का महत्त्वपूर्ण मनोभूमि है। जब तक मनुष्य सोचता है कि मैं जानता हूँ, मैं कर सकता हूँ, तब तक वह अपने अहंकार में बंधा रहता है। जैसे ही उसे अपनी अज्ञानता का बोध होता है, वही उसके विवेक और जिज्ञासा की सच्ची शुरुआत होती है।
अन्त में शिष्य गुरु से करुणा की याचना करता है— “कृपया मां भो संसारदुःखक्षतिमातनुष्व”— “हे प्रभो! कृपा करके मेरे इस संसार-दुःख का क्षय कीजिए।” संसार-दुःख का क्षय ही मोक्ष है। यहाँ ‘क्षतिम्’ शब्द का प्रयोग बहुत अर्थपूर्ण है— अर्थात् इसका विनाश कर दीजिए। यह केवल किसी कष्ट से मुक्ति नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भवबन्धन का अन्त है।
यह श्लोक यह दर्शाता है कि सच्चा साधक केवल गुरु की कृपा से ही भवसिन्धु पार कर सकता है। अपनी असमर्थता को स्वीकार करना, अहंकार का परित्याग करना, और करुणा की प्रार्थना करना— यही आत्मज्ञान की अनिवार्य भूमिका है। इसी भाव से गुरु में सम्पूर्ण समर्पण और शरणागति उत्पन्न होती है। यही शरणागति मोक्ष का द्वार खोलती है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!