"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 43वां श्लोक"
"उपदेश विधि"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
तथा वदन्तं शरणागतं स्वं
संसारदावानलतापतप्तम्
निरीक्ष्य कारुण्यरसार्द्रदृष्ट्या
दद्यादभीतिं सहसा महात्मा ॥ ४३ ॥
अर्थ:-इस प्रकार कहते हुए, अपनी शरण में आये संसारानल-सन्तप्त शिष्य को महात्मा गुरु करुणामयी दृष्टि से देखकर सहसा अभय प्रदान करे।
इस श्लोक में शिष्य और गुरु के मध्य की परम करुणामयी और आध्यात्मिक सम्बन्ध को अत्यंत मार्मिक रूप में व्यक्त किया गया है। शिष्य संसार-दावानल से संतप्त होकर, अपने भीतर व्याप्त अज्ञान, मोह, भ्रम और जन्म-मृत्यु के चक्र से पीड़ित होकर, किसी उपाय को न जानकर, अपने समस्त अहंकार और संकल्पों को त्यागकर शरणागत भाव से गुरु के पास आता है। वह जानता है कि अब उसकी रक्षा केवल किसी लौकिक उपाय से नहीं हो सकती, बल्कि आत्मज्ञान देनेवाले सद्गुरु की कृपा ही उसका एकमात्र सहारा है। वह कहता है – “मैं नहीं जानता कि इस संसार-सागर को कैसे पार करूँ, मेरी क्या गति होगी, और कौन-सा उपाय शेष है; प्रभो! कृपा करके मेरी रक्षा कीजिए।” यह भाव आत्मसमर्पण का उच्चतम रूप है, जहाँ शिष्य अपने विवेक को भी गुरु के चरणों में अर्पित कर देता है।
ऐसे समय में सद्गुरु, जो स्वयं ब्रह्मनिष्ठ, करुणामयी और विश्व के कल्याण के लिए कार्यरत महात्मा होते हैं, वे उस शरणागत शिष्य को उपेक्षित नहीं करते। वे उसे देखकर, उसकी पीड़ा को अनुभव कर, अपनी करुणा-सिन्धु दृष्टि से उसे निहारते हैं। वह दृष्टि केवल एक साधारण दृष्टि नहीं होती – वह “कारुण्यरसार्द्रदृष्ट्या” अर्थात करुणा के रस से भीगी हुई, दिव्य दृष्टि होती है, जो शिष्य के भीतर की व्यथा को पहचान लेती है। यह दृष्टि केवल शरीर या वाणी नहीं देखती, यह आत्मा की पुकार को सुनती है। शिष्य का यह समर्पण जब सच्चा होता है, तो गुरु का हृदय सहज ही द्रवित हो उठता है।
इस प्रकार, उस करुणामयी दृष्टि से देखते हुए, महात्मा गुरु उस भयाक्रांत शिष्य को तुरंत “अभीतिं दद्यात्” – अर्थात अभय प्रदान करते हैं। यह अभय केवल सांत्वना मात्र नहीं होती, यह उस गहन सत्य का बोध है कि तू आत्मा है, तू अजर है, अमर है, जन्म-मरण से परे है। यह अभय ब्रह्मज्ञान के रूप में होता है, जो अज्ञान के अंधकार को समाप्त करता है और शिष्य को अपने स्वरूप का साक्षात्कार कराता है।
यह श्लोक गुरु-शिष्य परंपरा की उस जीवंत परंपरा का चित्रण करता है, जहाँ गुरु केवल एक शिक्षक नहीं, अपितु मुक्तिदाता, जीवन के गहनतम संकटों में प्रकाश देनेवाले दीपक होते हैं। वे महात्मा इसलिए हैं कि वे केवल उपदेश नहीं देते, बल्कि अपने शिष्य को अपने अनुभव से प्राप्त ज्ञान में स्थापित करते हैं। उनका अभय केवल शब्द नहीं होता, वह एक संजीवनी बनकर शिष्य की आत्मा में नवजीवन का संचार करता है। इस प्रकार शिष्य भय, दुःख, मोह, शोक और भ्रम से मुक्त होकर आत्मस्वरूप में स्थित होता है। यही है गुरु कृपा का चमत्कार, और यही है विवेकचूडामणि की शिक्षा का मूल लक्ष्य – शिष्य का आत्मबोध।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!