"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 44वां श्लोक"
"उपदेश विधि"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
विद्वान्स तस्मा उपसत्तिमीयुषे मुमुक्षवे साधु यथोक्तकारिणे ।
प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय तत्त्वोपदेशं कृपयैव कुर्यात् ॥ ४४ ॥
अर्थ:-शरणागति की इच्छा वाले उस मुमुक्षु, आज्ञाकारी, शान्तचित्त, शमादि-संयुक्त साधु शिष्य को गुरु कृपया [ इस प्रकार ] तत्त्वोपदेश करे
विद्वान गुरु के प्रति शिष्य का समर्पण और उसके गुणों का यह श्लोक बहुत सुंदर ढंग से वर्णन करता है। यहाँ आदर्श शिष्य का स्वरूप और गुरु के उपदेश की महत्ता को रेखांकित किया गया है। श्लोक में कहा गया है कि जब कोई मुमुक्षु – अर्थात मोक्ष की तीव्र इच्छा वाला साधक – गुरु की शरण में आता है, तो गुरु उसे तत्त्वज्ञान प्रदान करता है। लेकिन यह उपदेश किसी भी साधक को नहीं दिया जाता, बल्कि उस शिष्य को दिया जाता है, जो यथोक्तकारिणी अर्थात आज्ञाकारी हो, जो गुरु द्वारा बताए गए उपायों का सम्यक आचरण करे। केवल शास्त्रों का अध्ययन या बाह्याचार्य से शिष्य बन जाना पर्याप्त नहीं है; शिष्य में एक सच्चा विनम्र भाव, शम (मन की शांति), दम (इन्द्रियों का संयम), उपरति (वैराग्य), तितिक्षा (सहनशीलता), श्रद्धा और समाधान जैसे गुण होना अनिवार्य है। इन्हें षट्सम्पत्ति कहा जाता है।
श्लोक में विशेष रूप से प्रशान्तचित्ताय शब्द का प्रयोग किया गया है, जो संकेत करता है कि जिनका चित्त सांसारिक विषयों में व्याकुल नहीं है, जिनकी आकांक्षाएं शांत हो चुकी हैं, वही तत्त्वज्ञान के योग्य हैं। गुरु की दृष्टि में शिष्य का बाहरी आचरण नहीं, उसकी भीतरी तैयारी महत्वपूर्ण होती है। मुमुक्षु का हृदय अगर शुद्ध है, उसमें मोक्ष पाने की तीव्र पिपासा है और वह गुरु पर संपूर्ण श्रद्धा रखता है, तो गुरु स्वतः कृपा करके उसे तत्त्वज्ञान प्रदान करता है।
यहाँ तत्त्वोपदेश का अर्थ है – आत्मा और ब्रह्म की अद्वैत सच्चाई का प्रत्यक्ष बोध कराने वाला उपदेश। यह उपदेश केवल शाब्दिक ज्ञान नहीं होता, बल्कि गुरु की कृपा और साक्षात्कार से अनुभूत होता है। शरणागति ही इस ज्ञान के द्वार खोलती है। शिष्य जब अपने अहंकार और ज्ञानाभिमान का परित्याग कर पूरी श्रद्धा से गुरु की शरण में आता है, तभी गुरु उसकी पात्रता देखकर तत्त्वज्ञान का संचार करता है।
इस श्लोक में यह भी स्पष्ट किया गया है कि गुरु को उपदेश में कोई संकोच नहीं रखना चाहिए। यदि शिष्य साधु, शांतचित्त, आज्ञाकारी और शमादि गुणों से युक्त है, तो गुरु की यह जिम्मेदारी है कि वह कृपा पूर्वक ज्ञान प्रदान करे। यहाँ “कृपया एव” शब्द गुरु की करुणा की महत्ता को बताता है। गुरु केवल अपने ज्ञान का प्रदर्शन करने के लिए उपदेश नहीं देता, बल्कि शिष्य के कल्याण और संसार-बंधन से मुक्ति के लिए उसे ब्रह्मज्ञान प्रदान करता है।
विवेकचूडामणि का यह श्लोक गुरु-शिष्य परंपरा के आदर्श को बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत करता है। इसमें शिष्य की पात्रता, विनम्रता, श्रद्धा और गुरु की करुणा का अद्भुत संगम दिखाया गया है। ऐसे ही उपदेश से ही जीव आत्मज्ञान की ओर अग्रसर होता है और अद्वैत साक्षात्कार को प्राप्त करता है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!