"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 45वां श्लोक"
"श्रीगुरुरुवाच"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
मा भैष्ट विद्वंस्तव नास्त्यपायः संसारसिन्धोस्तरणेऽस्त्युपायः
येनैव याता यतयोऽस्य पारं तमेव मार्गं तव निर्दिशामि ॥ ४५ ॥
अर्थ:-गुरु- हे विद्वन् ! तू डर मत, तेरा नाश नहीं होगा। संसार-सागर से तरने का उपाय है। जिस मार्ग से यतिजन इस के पार गये हैं, वही मार्ग मैं तुझे दिखाता हूँ।
इन पवित्र शब्दों में सद्गुरु अपने शिष्य को प्रेमपूर्वक धैर्य और सांत्वना प्रदान कर रहे हैं। शिष्य के अंतःकरण में संसार के भयंकर बंधनों के प्रति गहन भय उत्पन्न हो गया है। उसे ऐसा प्रतीत होता है कि यह जन्म-मरण का चक्र कभी समाप्त नहीं होगा, और वह इस महासागर से पार नहीं जा सकेगा। ऐसे विषम क्षण में गुरु उसकी दुर्बलता और हताशा को देखकर अत्यंत करुणा से कह रहे हैं – “मा भैष्ट,” अर्थात् हे विद्वान! भय मत कर। तेरा कोई अपाय, कोई विनाश नहीं होगा। यह वचन शिष्य के चित्त में तुरंत आशा का संचार करता है। जैसे कोई बालक घोर अंधकार में भयभीत होकर रोता है और माता का हाथ पकड़ लेता है, उसी प्रकार गुरु का यह वचन शिष्य को भयमुक्त करता है।
गुरु कहते हैं कि संसार-सागर से पार जाने का उपाय निश्चित रूप से है। यह संसार-दावानल जितना भी विकराल हो, इससे तरने के साधन पूर्व में भी साधकों ने अपनाए हैं और वे सफल हुए हैं। इस मार्ग से अनेक महान यती, मुमुक्षु और सच्चे साधक इस भवसागर के पार गए हैं। जब तक किसी कठिनाई का उपाय अज्ञात होता है, तब तक उसका भय असह्य प्रतीत होता है। पर जैसे ही कोई सक्षम व्यक्ति समाधान बताता है, तत्काल मन में शांति और साहस का संचार होता है। गुरु इसी गहन करुणा से प्रेरित होकर कहते हैं – “जिस उपाय से यतीजन पार हुए हैं, वही उपाय मैं तुझे बताता हूँ।” यह आश्वासन मात्र उपदेश नहीं, अपितु अनुभवजन्य सत्य का प्रतिफलन है। गुरु स्वयं भी इसी मार्ग पर चले हैं, उसी अनुभव से उनके वचनों में इतनी दृढ़ता और करुणा प्रकट होती है।
यह श्लोक गुरु-शिष्य परंपरा की मूलभूत आत्मीयता को उजागर करता है। गुरु केवल एक उपदेशक नहीं, बल्कि आत्मा की अंतरंग पीड़ा के साक्षी और उसे दूर करने वाले सखा होते हैं। वे शिष्य को आश्वस्त करते हैं कि यह भय निराधार है, क्योंकि उपाय न होता तो समस्त यतीजन कैसे पार जाते? आत्मबोध, विवेक, वैराग्य, शम, दम आदि साधन वही सुनिश्चित उपाय हैं, जो प्राचीन काल से परम अनुभूतिमूलक मार्ग के रूप में प्रतिष्ठित हैं। यही मार्ग शिष्य को निर्दिष्ट किया जाता है।
इस श्लोक में गुरु शिष्य को साहस देते हुए यह भी स्मरण कराते हैं कि जिस पथ पर साधक दृढ़ता से चलेंगे, उसमें कोई असफलता नहीं होगी। संसार सागर में नाश उन लोगों का होता है जो प्रयास से विमुख हो जाते हैं, किंतु जिन्हें गुरु का अनुग्रह प्राप्त होता है और जो दिखाए गए मार्ग पर चलने का निश्चय करते हैं, उनके लिए यह समुद्र सरल हो जाता है। यह श्लोक भक्त और साधक दोनों के लिए अमूल्य प्रेरणा है कि गुरु के वचनों पर अडिग श्रद्धा रखकर साधना में लगना ही मुक्ति का सुनिश्चित उपाय है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!