"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 46वां श्लोक"
"श्रीगुरुरुवाच"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अस्त्युपायो महान्कश्चित्संसारभयनाशनः ।
येन तीर्खा भवाम्भोधिं परमानन्दमाप्स्यसि ॥ ४६ ॥
अर्थ:-संसाररूपी भय का नाश करने वाला कोई एक महान् उपाय है जिस के द्वारा तू संसार-सागर को पार करके परमानन्द प्राप्त करेगा।
इस श्लोक में शंकराचार्य जी संसार-दुःख से व्याकुल मुमुक्षु के प्रश्नों का उत्तर देते हुए उसे सांत्वना प्रदान करते हैं। शिष्य भयभीत होकर पूछता है कि इस भयावह संसार-सागर से कैसे पार पाऊँगा? मेरी गति क्या होगी? मैं तो कुछ भी नहीं जानता। कृपा करके मेरा मार्गदर्शन कीजिए। गुरु की कृपादृष्टि से उस शिष्य को यह आश्वासन मिलता है कि "डर मत, निश्चिंत हो जा, इस भय से मुक्ति का एक महान उपाय है।" यही वह करुणामयी दृष्टि है जो विवेकचूडामणि के पूर्ववर्ती श्लोकों में बार-बार उभरकर सामने आती है। यहाँ ‘उपाय’ शब्द अपने भीतर एक व्यापक अर्थ समेटे हुए है—यह केवल कोई साधारण विधि नहीं, अपितु ऐसा दिव्य साधन है जो जन्म-मरण के चक्र को समाप्त कर सकता है और जीव को परमानन्द में स्थापित कर सकता है।
श्लोक का प्रत्येक शब्द एक गहन आध्यात्मिक संकेत देता है। ‘अस्ति’ का अर्थ है—‘है’, अर्थात् गुरु यह निश्चयपूर्वक कह रहे हैं कि उपाय उपलब्ध है, मार्ग उपलब्ध है। यह निराशा नहीं, अपितु आशा का उद्घोष है। ‘उपायो महान्’ यह स्पष्ट करता है कि यह कोई सामान्य उपाय नहीं है, यह सर्वोच्च उपाय है—जो समस्त दुखों के मूल कारण, अर्थात् अविद्या का नाश करता है। यही उपनिषदों, गीता, ब्रह्मसूत्र और विवेकचूडामणि जैसे ग्रंथों का सार है कि आत्मज्ञान ही एकमात्र उपाय है जिससे भय और दुःख समाप्त हो सकते हैं।
‘संसारभयनाशनः’—यह शब्द बताता है कि संसार का मूल स्वरूप भय है। यह भय किसी बाहरी वस्तु से नहीं, अपितु अज्ञानजनित अहंकार और द्वैत से उत्पन्न होता है। जब जीव स्वयं को शरीर, मन या इन्द्रियों से अभिन्न समझता है, तब संसार का भय उत्पन्न होता है। लेकिन आत्मा अजर-अमर, निष्कलंक, अक्लेश और परमसत्य है। उसे जानने पर भय का कोई स्थान नहीं रह जाता। यही कारण है कि उपनिषदों में कहा गया है—“यदा हि द्वैतं भवति तदा इतर इतरं पश्यति”—द्वैत होने पर ही भय और दुःख संभव हैं।
‘येन तीर्त्वा भवाम्भोधिं’—यहाँ गुरु यह कहते हैं कि उसी उपाय से तू इस भवसागर को पार कर सकेगा। भवाम्बुधि अर्थात् जन्म-मरण का वह सागर जिसमें जीव बार-बार डूबता है। यह संसारसागर गहरा, अनंत और भयंकर है, लेकिन जब आत्मा अपनी शुद्ध स्वरूप को पहचान लेती है, तब यह सागर केवल एक भ्रम प्रतीत होता है। आत्मज्ञान वह नौका है जो इस पार से उस पार ले जाती है।
अंततः श्लोक का समापन होता है ‘परमानन्दमाप्स्यसि’ से। यह केवल साधारण सुख नहीं, अपितु परम आनन्द है जो आत्मस्वरूप में स्थित होने से प्राप्त होता है। यह आनन्द किसी वस्तु या अनुभव से नहीं आता, यह आत्मस्वरूप की पहचान से उपजता है। वही ब्रह्मानन्द है, वही मोक्ष है। इस प्रकार यह श्लोक न केवल आश्वासन देता है, अपितु एक दिशा भी देता है—गुरु के वचनों पर विश्वास कर, आत्मज्ञान के मार्ग पर चल, और तू निश्चय ही परम शान्ति एवं परमानन्द को प्राप्त करेगा।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!