"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 47वां श्लोक"
"श्रीगुरुरुवाच"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
वेदान्तार्थविचारेण जायते ज्ञानमुत्तमम् ।
तेनात्यन्तिकसंसारदुःखनाशो भवत्यनु ॥ ४७ ॥
अर्थ:-वेदान्त-वाक्यों के अर्थ का विचार करने से उत्तम ज्ञान होता है, जिस से फिर संसार-दुःख का आत्यन्तिक नाश हो जाता है।
यह श्लोक अद्वैत वेदांत के अद्भुत प्रभाव को अत्यंत सरल और गहन शब्दों में व्यक्त करता है। शंकराचार्य जी कहते हैं कि वेदांत वाक्यों के अर्थ का विचार करना ही वह मुख्य साधन है, जिससे मनुष्य को सर्वोच्च ज्ञान प्राप्त होता है। वेदांत वाक्य वे महावाक्य हैं, जो उपनिषदों में बार-बार आत्मा और ब्रह्म की एकता को प्रतिपादित करते हैं। जैसे – “तत्त्वमसि” (तू वही है), “अहम् ब्रह्मास्मि” (मैं ब्रह्म हूं), “प्रज्ञानम् ब्रह्म” (ब्रह्म ही चेतना है)। इन वाक्यों के अर्थ पर जब गंभीरता से मनन, चिंतन और निदिध्यासन किया जाता है, तब व्यक्ति का चित्त शुद्ध होता है और ज्ञान की उत्पत्ति होती है। यह ज्ञान कोई साधारण जानकारी नहीं बल्कि अद्वितीय आत्मबोध होता है। इस आत्मज्ञान से जीव का भ्रम नष्ट होता है कि “मैं शरीर हूं” या “मैं मन हूं।” इसके स्थान पर यह अटल अनुभूति जागती है कि मैं अनादि, अजर, अमर, निर्विकार ब्रह्मस्वरूप हूं। यही आत्मा सभी में एकरस रूप से व्याप्त है। यह सर्वोच्च ज्ञान ही संसार-दुःख का आत्यन्तिक, अर्थात् सम्पूर्ण और अंतिम नाश करता है।
संसार-दुःख का कारण अविद्या है, जो अनेक जन्मों से हमारे मन में छिपी रहती है। अविद्या से ही राग-द्वेष, अहंकार, लोभ और भय उत्पन्न होते हैं। यह अविद्या हमें बार-बार जन्म-मरण के चक्र में डालती है। शंकराचार्य कहते हैं कि कोई भी बाहरी उपाय – जैसे केवल कर्मकांड, तीर्थाटन या व्रत – इस मूल अज्ञान को पूर्ण रूप से समाप्त नहीं कर सकता। जब तक वेदांत के वाक्यों का तात्पर्य नहीं समझा जाता, तब तक यह अज्ञान दृढ़ रहता है। वेदांतार्थविचार, अर्थात् उपनिषदों के ज्ञान का गहन चिन्तन और अनुभूति, ही एकमात्र उपाय है, जिससे अज्ञान रूपी जड़ को काटा जा सकता है। जब अज्ञान नष्ट होता है, तब उसके फलस्वरूप उत्पन्न सम्पूर्ण दुःख, मोह और बंधन भी स्वतः समाप्त हो जाते हैं।
यह श्लोक यह भी इंगित करता है कि केवल श्रवण या वाचन से ही ज्ञान प्राप्त नहीं होता। वेदांत वाक्यों को सुनने के बाद मनन अर्थात तर्कपूर्वक उनकी पुष्टि करनी होती है और निदिध्यासन अर्थात बार-बार उसी तत्त्व में चित्त को स्थिर करना होता है। इसी निरंतर साधना से आत्मा की अखण्डता का अनुभव होता है। जैसे घी में अग्नि डालने से वह जलता रहता है, उसी प्रकार बार-बार आत्मचिन्तन से अज्ञान पूरी तरह जलकर समाप्त होता है।
जब आत्मा का ज्ञान प्रकट होता है, तब जीव को यह स्पष्ट होता है कि वह कभी भी बंधा हुआ नहीं था, वह सदा मुक्त था। संसार और उसके दुःख केवल भ्रान्ति की तरह प्रतीत होते हैं। जैसे स्वप्न से जागने पर स्वप्न का दुःख मिट जाता है, वैसे ही आत्मबोध से संसार-दुःख समाप्त होता है। इस प्रकार वेदांत का विचार करने से जन्म-मृत्यु के चक्र का सम्पूर्ण नाश हो जाता है और परम शान्ति प्राप्त होती है। यही वेदांत का परम उद्देश्य है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!