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मंगलवार, 8 जुलाई 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 48वां श्लोक"


"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 48वां श्लोक"

"श्रीगुरुरुवाच"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

श्रद्धाभक्तिध्यानयोगान्मुमुक्षो-मुक्तेर्हेतून्वक्ति साक्षाच्छुतेर्गीः ।

यो वा एतेष्वेव तिष्ठत्यमुष्य मोक्षोऽविद्याकल्पिताद्देहबन्धात् ॥ ४८ ॥

अर्थ:-श्रद्धा, भक्ति, ध्यान और योग इनको भगवती श्रुति मुमुक्षु की मुक्ति के साक्षात् हेतु बतलाती है। जो इन्हीं में स्थित हो जाता है उस का अविद्या कल्पित देह-बन्धन से मोक्ष हो जाता है।

विवेकचूडामणि के इस श्लोक में आदि शंकराचार्य ने साधक के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण चार साधनों का वर्णन किया है, जिन्हें मुक्ति के प्रत्यक्ष कारण कहा गया है। ये चार हैं – श्रद्धा, भक्ति, ध्यान और योग। भगवती श्रुति अर्थात् उपनिषदों में भी बार-बार कहा गया है कि जो मुमुक्षु – अर्थात् जो जीव मोक्ष की तीव्र इच्छा रखता है – वह इन चारों साधनों को धारण करे और इन्हीं में स्थिर हो जाए। श्रद्धा का अर्थ है – गुरु, शास्त्र और उपदेश में दृढ़ विश्वास रखना। जब तक साधक को यह दृढ़ श्रद्धा नहीं होगी कि वेदांत-वाक्य साक्षात् सत्य का उद्घाटन करते हैं और गुरु का उपदेश मोक्ष का मार्ग है, तब तक उसके चित्त में आवश्यक दृढ़ता उत्पन्न नहीं होती। श्रद्धा वह भूमि है जिसमें ज्ञान का बीज अंकुरित होता है।

भक्ति – यह दूसरे साधन के रूप में गिनी गई है। भक्ति का अर्थ है – अपने समस्त कर्मों, विचारों और भावनाओं को परमात्मा के चरणों में समर्पित करना। यहाँ भक्ति केवल भक्तिपूर्ण पूजा न होकर एक गहन आंतरिक समर्पण है, जो आत्मज्ञान को प्रशस्त करता है। भगवद्गीता में भी कहा गया है – भक्त्या मामभिजानाति – केवल भक्ति से ही मनुष्य परमात्मा के तत्त्व को जान सकता है। अतः यहाँ भक्ति को मुक्ति के हेतु के रूप में स्वीकार किया गया है।

ध्यान – तीसरा साधन – साधक के चित्त को एकाग्र करने का उपाय है। ध्यान से चित्त पर नियंत्रण होता है, विक्षेप दूर होते हैं और आत्मतत्त्व के प्रति स्पष्ट ज्ञान जाग्रत होता है। उपनिषदों में बार-बार कहा गया है – ध्यानमूलं गुरोर्मूर्ति – गुरु के उपदेश के तत्त्व पर ध्यान करना चाहिए। ध्यान वह साधन है जो मन को विशुद्ध और स्थिर कर देता है।

योग – चौथा साधन – यहाँ योग का आशय चित्तवृत्ति-निरोध और साधन-चतुष्टय की परिपूर्णता से है। जब योग के द्वारा चित्त एकाग्र होकर आत्मविचार में प्रवृत्त होता है, तब अन्तःकरण शुद्ध होता है और अज्ञानरूपी मल दूर होते हैं। इसीलिए श्रुति कहती है कि योग से ही मोक्ष सुलभ होता है।

श्लोक में आगे कहा गया है कि जो मुमुक्षु श्रद्धा, भक्ति, ध्यान और योग में ही स्थिर हो जाता है, वही देह-बन्धन से मुक्त होता है। यह देह-बन्धन वास्तव में अविद्या की कल्पना से उत्पन्न हुआ है – अर्थात् देह में आत्माभिमान। जब साधक इन साधनों से चित्त को शुद्ध कर लेता है, तब उसे यह बोध होता है कि आत्मा सदा अजन्मा, अविकार और परम स्वतंत्र है। इस ज्ञान से उसका देहाध्यास नष्ट हो जाता है। देह-बन्धन का कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है, वह केवल अज्ञान के कारण प्रतीत होता है।

अतः शंकराचार्य ने इस श्लोक में स्पष्ट कर दिया कि मोक्ष कोई दूर की वस्तु नहीं है, न ही यह किसी क्रिया से उत्पन्न होने वाला है। श्रद्धा, भक्ति, ध्यान और योग के माध्यम से जब अन्तःकरण निर्मल होता है, तब अपने स्वभाविक ज्ञान से साधक जान लेता है कि मैं सदा शुद्ध ब्रह्मस्वरूप हूँ और देह से मेरा कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं है। यही ज्ञान अज्ञानकल्पित देहबन्धन को नष्ट कर देता है।


ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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