"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 49वां श्लोक"
"श्रीगुरुरुवाच"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अज्ञानयोगात्परमात्मनस्तव
ह्यनात्मबन्धस्तत एव संसृतिः ।
तयोर्विवेकोदितबोधवह्नि-रज्ञानकार्यं
प्रदहेत्समूलम् ॥ ४९ ॥
अर्थ:-तुझ परमात्मा का अनात्म-बन्धन अज्ञान के कारण ही है और उसी से तुझ को [जन्म-मरणरूप] संसार प्राप्त हुआ है। अतः उन (आत्मा और अनात्मा) के विवेक से उत्पन्न हुआ बोधरूप अग्नि अज्ञान के कार्य रूप संसारको मूल सहित भस्म कर देगा।
इस श्लोक में आदि शंकराचार्यजी ने अद्वैत वेदांत के अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांत को स्पष्ट किया है। वे बताते हैं कि जीवात्मा पर अनात्म अर्थात शरीर, इंद्रिय, मन, अहंकार आदि का बंधन केवल अज्ञान के कारण होता है। वास्तव में जीव का स्वरूप परमात्मा ही है, परंतु यह माया और अज्ञान की आवरण शक्ति से अपने स्वरूप को भुला बैठता है। जैसे सूर्य पर बादल आच्छादन कर देते हैं और उसकी दीप्ति को छुपा लेते हैं, वैसे ही अज्ञानरूपी बादल जीव की आत्मज्योति को ढक लेते हैं। इस आवरण के कारण आत्मा अनात्म को अपना मान लेता है और “मैं शरीर हूँ, मैं मन हूँ, मैं दुखी हूँ, मैं करता हूँ” इस प्रकार के मिथ्या अभिमान में पड़ जाता है। यही मिथ्या अभिमान जन्म और मरण का चक्र उत्पन्न करता है।
जब तक यह अज्ञान बना रहता है, तब तक जीव संसार में निरंतर भटकता रहता है। यही अज्ञान कारण है कि व्यक्ति परमात्मा से अभिन्न होते हुए भी स्वयं को सीमित, दुखी और पराधीन अनुभव करता है। इस श्लोक में कहा गया है कि आत्मा और अनात्म का विवेक ही इस अज्ञान का विनाशक है। विवेक का अर्थ है – यह जानना कि क्या सत्य है और क्या असत्य है। आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त चैतन्य स्वरूप है, जबकि अनात्म जड़, नश्वर, असत् है। जब इस विवेक से उत्पन्न बोधरूपी अग्नि हृदय में प्रज्वलित होती है, तब वह अज्ञान और उसके समस्त परिणामों को जड़ से भस्म कर देती है।
इस ज्ञानाग्नि के प्रज्वलन से आत्मा के ऊपर छाया हुआ अज्ञान का अंधकार मिट जाता है। जैसे अग्नि लकड़ी को जलाकर भस्म कर देती है, वैसे ही यह ज्ञानाग्नि अनात्म की मिथ्या सत्ता का संहार कर देती है। अनात्म का कार्य ही संसार है – जन्म, मरण, सुख, दुख, भय, शोक आदि। इस बंधन का मूल कारण अज्ञान है, इसलिए केवल साधन और कर्मकांड से यह पूरी तरह नष्ट नहीं होता। इसके पूर्ण विनाश का उपाय आत्मानात्म विवेक से उत्पन्न ज्ञान ही है।
विवेकचूडामणि में यह स्पष्ट किया गया है कि साधना का अंतिम फल यह बोध ही है। जब यह बोध जाग्रत होता है, तब यह जान लिया जाता है कि ‘मैं शुद्ध चैतन्य आत्मा हूँ, न कि यह नश्वर शरीर या मन।’ इसी आत्मसाक्षात्कार से समस्त बंधन छिन्न हो जाते हैं और जीव अपने परम स्वरूप को अनुभव कर लेता है। यह अवस्था ही मोक्ष कही गई है।
इस श्लोक में यही गूढ़ सत्य सरल शब्दों में प्रकट किया गया है – अज्ञान से ही परमात्मा पर अनात्म का बंधन है, और विवेकजन्य बोधरूपी अग्नि से वह अज्ञान-संसार मूल सहित भस्म हो जाता है। यही अद्वैत वेदांत का सार है – आत्मानात्म विवेक, बोध की अग्नि, और अज्ञान के विनाश से मुक्ति।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!