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गुरुवार, 10 जुलाई 2025

विवेकचूडामणि ग्रंथ का 50वां श्लोक"


"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 50वां श्लोक"

"प्रश्न-निरूपण"

"शिष्य उवाच"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

कृपया श्रूयतां स्वामिन्प्रश्नोऽयं क्रियते मया।
तदुत्तरमहं श्रुत्वा कृतार्थः स्यां भवन्मुखात् ॥ ५० ॥

अर्थ:-शिष्य - हे स्वामिन् ! कृपया सुनिये; मैं यह प्रश्न करता हूँ। उसका उत्तर आपके श्रीमुख से सुन कर मैं कृतार्थ हो जाऊँगा।

शिष्य का यह विनम्र और श्रद्धा से भरा हुआ निवेदन हमें गुरु-शिष्य परम्परा की महान गरिमा का आभास कराता है। शिष्य कहता है – हे स्वामिन्! अर्थात् हे गुरुश्रेष्ठ! कृपया मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें। यहाँ ‘श्रूयताम्’ शब्द में निवेदन, याचना और आत्मसमर्पण का भाव है। शिष्य जानता है कि स्वयं की सीमित बुद्धि से परम सत्य का बोध नहीं हो सकता, इसलिए वह गुरु से स्पष्ट उत्तर और अनुग्रह चाहता है। वह आगे कहता है – प्रश्नोऽयं क्रियते मया, अर्थात् मैं यह प्रश्न कर रहा हूँ। यह प्रश्न साधारण जिज्ञासा नहीं है, बल्कि जीवन-मरण के बंधनों से मुक्त होने की गहरी तड़प का परिणाम है। तदुत्तरमहं श्रुत्वा कृतार्थः स्यां भवन्मुखात् – इसका अर्थ यह है कि आपके श्रीमुख से इस प्रश्न का उत्तर सुनकर मैं कृतार्थ हो जाऊँगा, मेरे जीवन का उद्देश्य सिद्ध हो जाएगा।

यह श्लोक गुरु-शिष्य संवाद की उस अवस्था को दर्शाता है जहाँ शिष्य में आंतरिक पवित्रता, विनम्रता और ज्ञान की प्रबल आकांक्षा प्रकट हो चुकी है। वह अब प्रश्न कर रहा है, पर उसका प्रश्न अहंकार या वाद-विवाद के लिए नहीं, बल्कि आत्मसाक्षात्कार की जिज्ञासा से प्रेरित है। यहाँ ‘कृतार्थः’ शब्द अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसका अर्थ है – जिसका जीवन सफल हो गया, जिसने मानव-जन्म के परम प्रयोजन को प्राप्त कर लिया। शिष्य के लिए यह उत्तर केवल एक ज्ञान का प्रसंग नहीं, बल्कि आत्मस्वरूप की उपलब्धि की कुँजी है।

गुरु के प्रति उसकी यह श्रद्धा दर्शाती है कि आत्मज्ञान के मार्ग में केवल शास्त्र-चर्चा पर्याप्त नहीं होती, बल्कि जीवंत गुरु से उपदेश लेना आवश्यक होता है। शिष्य को यह पूर्ण विश्वास है कि गुरुवाणी में ही वह शक्ति है, जो उसके संदेहों का समाधान कर सकती है और उसे अज्ञान के अंधकार से बाहर निकाल सकती है। इसीलिए वह कहता है कि आपके श्रीमुख से उपदेश सुनकर ही मैं संतुष्ट होऊँगा। वह जानता है कि गुरु का उपदेश केवल शब्द नहीं होता, उसमें उनके अनुभव की ऊर्जा और करुणा भी सम्मिलित होती है। यही कारण है कि उसने अपने मन को एकाग्र कर इस प्रश्न को गुरुचरणों में समर्पित किया है।

यह भी स्पष्ट होता है कि आत्मज्ञान के पथ में विनम्रता और श्रद्धा से किया गया प्रश्न ही सार्थक होता है। शिष्य ने पहले अपनी पात्रता का विकास किया – चित्त की शुद्धि, इन्द्रिय-निग्रह, वैराग्य और विवेक साधन करके अब वह अन्तिम उपदेश की प्रतीक्षा कर रहा है। वह जानता है कि गुरु की वाणी ही वह दीपक है जो उसके अंतःकरण के अंधकार को मिटा देगी। इसीलिए वह अत्यन्त नम्रता से कहता है – कृपया सुनिए और मुझे वह अमूल्य ज्ञान दीजिए।

यह श्लोक हमें यह भी सिखाता है कि किसी भी साधक को आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए अपने संदेहों को छुपाना नहीं चाहिए। श्रद्धा पूर्वक अपनी शंकाओं को गुरु के समक्ष रखना और उनके उत्तर को विनम्रता से ग्रहण करना ही सच्ची साधना का अंग है। इस प्रकार यह श्लोक गुरु-शिष्य संबंध की गरिमा, विनम्र जिज्ञासा और आत्मज्ञान की आकांक्षा का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करता है।


ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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