"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 51वां श्लोक"
"प्रश्न-निरूपण"
"शिष्य उवाच"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
को नाम बन्धः कथमेष आगतः कथं प्रतिष्ठास्य कथं विमोक्षः ।
कोऽसावनात्मा परमः क आत्मा तयोर्विवेकः कथमेतदुच्यताम् ॥ ५१ ॥
अर्थ:-बन्ध क्या है? यह कैसे हुआ? इसकी स्थिति कैसे है? और इससे मोक्ष कैसे मिल सकता है? अनात्मा क्या है? परमात्मा किसे कहते हैं? और उनका विवेक (पार्थक्य ज्ञान) कैसे होता है? कृपया यह सब कहिये।
यह श्लोक विवेकचूडामणि का ५१वाँ श्लोक है, जिसमें शिष्य गुरु से अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न पूछता है। शिष्य जानना चाहता है कि यह बन्धन क्या है, जो जीव को संसार में बाँधे हुए है। यह बन्धन किस प्रकार उत्पन्न हुआ? इसकी सत्ता कैसे बनी रहती है? और इससे छूटकर मुक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है? इसके अतिरिक्त, वह यह भी जानना चाहता है कि अनात्मा कौन है – वह क्या है जिसे हम ‘मैं’ समझ रहे हैं पर वास्तव में आत्मा नहीं है। फिर वह परमात्मा – जो साक्षात् आत्मा है – कौन है? और अनात्मा तथा परमात्मा के बीच भेदबुद्धि या विवेक कैसे किया जाता है? शिष्य के ये प्रश्न आत्मज्ञान की प्राप्ति की दिशा में आवश्यक आधार तैयार करते हैं। क्योंकि जब तक साधक यह नहीं जानता कि किससे छुटकारा पाना है और किसका साक्षात्कार करना है, तब तक उसके प्रयास लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकते।
बन्धन का अर्थ है – जीवात्मा की असली स्वतंत्र, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, नित्य स्वरूप से विमुख होकर देह आदि उपाधियों से तादात्म्य। यह तादात्म्य ही बन्धन का मूल कारण है। यह कैसे उत्पन्न हुआ? शास्त्र कहते हैं कि यह अज्ञान या अविद्या के कारण ही हुआ। जैसे कोई व्यक्ति अंधेरे में रस्सी को साँप समझ लेता है, वैसे ही आत्मा को न जानने के कारण जीवात्मा अपने को शरीर, इन्द्रिय, मन, अहंकार से एक मान बैठता है। यह अज्ञान कालातीत है – अर्थात् प्रारम्भरहित है – परन्तु इसका अन्त ज्ञान के उदय से ही हो सकता है। अज्ञान से ही यह मिथ्या सत्ता प्रकट होती है और उसी से यह बन्धन टिकता है। इसीलिए इसकी प्रतिष्ठा केवल अज्ञान में ही है – जैसे स्वप्न केवल स्वप्नवस्था में ही यथार्थ प्रतीत होता है।
मोक्ष का अर्थ है – इस अज्ञान का पूर्ण नाश। जब यह अज्ञान मिट जाता है, तब आत्मा का स्वतः प्रकाश हो जाता है। तब यह भान होता है कि आत्मा सदा मुक्त ही थी, नित्य शुद्ध बुद्ध स्वरूप है। मोक्ष किसी कर्म से उत्पन्न होने वाली कोई नवीन अवस्था नहीं है। यह तो ज्ञान का प्रकट होना है – जैसे बादल हट जाने पर सूर्य का प्रकाश स्वयं ही दिखने लगता है। शास्त्र में कहा गया है – ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते – ज्ञान की अग्नि सब अज्ञानजन्य कर्मों को भस्म कर देती है।
यहाँ ‘अनात्मा’ से तात्पर्य है – वह सब जो आत्मा नहीं है। शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, सुख-दुःख आदि सब अनात्मा हैं। ये पंचकोशों में व्यवस्थित रहते हैं – अन्नमय कोश (भौतिक शरीर), प्राणमय कोश (जीवन-शक्ति), मनोमय कोश (मन), विज्ञानमय कोश (बुद्धि) और आनन्दमय कोश। यह सब आत्मा नहीं है, पर इनके कारण आत्मा सीमित और बन्धनयुक्त प्रतीत होता है।
‘परमात्मा’ वह चैतन्य तत्व है, जो अनादि, अनन्त, नित्य, साक्षी स्वरूप, अकर्ता और सदा मुक्त है। वह अद्वितीय है – उसमें कोई भेद नहीं है। वही वस्तुत: जीवात्मा का असली स्वरूप है। उसका साक्षात्कार ही मोक्ष है। अनात्मा और आत्मा के विवेक का उपाय शास्त्र-श्रवण, मनन और निदिध्यास ही है। पहले शास्त्र के प्रमाण से सुनना, फिर तर्क से शंका निवारण करना और अन्त में ध्यानपूर्वक निरन्तर आत्मा में ही स्थित होना – यह क्रम विवेक उत्पन्न करता है।
गुरु से यह सब पूछकर शिष्य यह दर्शाता है कि उसमें मुक्ति की तीव्र लालसा है। क्योंकि ये प्रश्न किसी साधारण जिज्ञासा से नहीं, बल्कि आत्मज्ञान की उत्कट आकांक्षा से उपजे हैं। यही प्रश्न और उनका समाधान साधक को अज्ञान के तिमिर से परम ज्ञान के सूर्य की ओर ले जाते हैं।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!