Total Blog Views

Translate

शनिवार, 12 जुलाई 2025

विवेकचूडामणि ग्रंथ का 52वां श्लोक"


"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 52वां श्लोक"

"शिष्य-प्रशंसा"

"श्रीगुरुरुवाच"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

धन्योऽसि कृतकृत्योऽसि पावितं ते कुलं त्वया। यदविद्याबन्धमुक्त्या ब्रह्मीभवितुमिच्छसि ।॥ ५२ ॥

अर्थ:-गुरु-तू धन्य है, कृतकृत्य है, तेरा कुल तुझ से पवित्र हो गया, क्योंकि तू अविद्यारूपी बन्धन से छूट कर ब्रह्मभाव को प्राप्त होना चाहता है।

यह श्लोक विवेकचूडामणि में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसमें गुरु अपने शिष्य को आशीर्वाद स्वरूप कह रहे हैं कि हे शिष्य, तू वास्तव में धन्य है, तेरा जीवन सफल हो गया है। तूने अपने प्रयत्न से, अपने सत्संकल्प से न केवल स्वयं को गौरवशाली बनाया है, बल्कि अपने पूरे कुल को भी पवित्र कर दिया है। यह कथन केवल प्रशंसा नहीं है, बल्कि इस गहरे सत्य का संकेत है कि जब कोई व्यक्ति आत्मज्ञान की ओर अग्रसर होता है, तो उसकी साधना का पुण्य उसकी कुल परम्परा को भी उच्चीकृत करता है। शिष्य की यह महत्त्वाकांक्षा कि वह अविद्या रूपी बन्धन से मुक्त होकर ब्रह्मरूप हो जाए, उसकी साधना की महानता को सिद्ध करती है।

यहाँ 'अविद्या-बन्ध' का अर्थ है अज्ञान का वह कठोर जाल, जिसमें जीव आत्मा अनादिकाल से फँसा हुआ है। अज्ञान ही संसार का मूल कारण है, जो आत्मा को अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरूप से विचलित करके अनेक जन्म-मरण के चक्र में डालता रहता है। शिष्य जब इस अज्ञान से मुक्ति पाने का संकल्प करता है और अपने जीवन का लक्ष्य ब्रह्मभाव की प्राप्ति बना लेता है, तभी उसका जीवन वास्तव में कृतकृत्य हो जाता है। संसार के असंख्य प्रलोभन और विकर्षणों से हटकर ऐसा पावन निर्णय लेना बहुत कठिन होता है। इसलिए गुरु उसे 'धन्य' कहकर उसके इस अभूतपूर्व पुरुषार्थ की प्रशंसा करते हैं।

'कृतकृत्य' शब्द यह बताता है कि जीवन में प्राप्त करने योग्य सबसे महत्वपूर्ण साध्य, आत्मज्ञान की प्राप्ति, ही है। भौतिक उपलब्धियां, मान-प्रतिष्ठा, और सुख सभी अल्पकालिक हैं। लेकिन अविद्या से मुक्ति और ब्रह्मभाव में स्थित होना स्थायी समाधान है, जो सारे दुःखों का नाश करता है। गुरु यह भी कहते हैं कि तेरे इस महान प्रयास से तेरा कुल पवित्र हो गया, क्योंकि परिवार में यदि कोई एक भी आत्मज्ञानी या आत्मसाधक हो जाता है, तो वह पूरे वंश का कल्याण कर देता है। ऐसी मान्यता है कि आत्मज्ञान प्राप्त करने वाला साधक अपने परिवार की सात पीढ़ियों तक का उद्धार कर देता है। इसलिए इस श्लोक में शिष्य की साधना के प्रभाव का व्यापक स्वरूप भी व्यक्त किया गया है।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि गुरु इस वक्तव्य में शिष्य का उत्साहवर्धन कर रहे हैं। साधक का पथ कभी सरल नहीं होता। अज्ञान की जड़ें गहरी होती हैं और साधना के मार्ग में निरंतर संघर्ष करना पड़ता है। गुरु के इस प्रकार के शब्द शिष्य में दृढ़ता और निष्ठा उत्पन्न करते हैं। आत्मज्ञान की तीव्र आकांक्षा ही मुक्ति की सर्वप्रथम सीढ़ी है। जब तक मनुष्य को ब्रह्मभाव को प्राप्त करने की उत्कट प्यास न हो, तब तक वह इस पथ पर चल ही नहीं सकता। इस श्लोक में गुरु ने उसी उत्कट इच्छा की प्रशंसा की है। उन्होंने शिष्य को यह भी अनुभव कराया कि उसका प्रयास व्यर्थ नहीं जाएगा, उसका जीवन सार्थक और सफल होगा।

अंततः यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि आत्मसाक्षात्कार की यात्रा केवल साधक का निजी प्रयास न होकर, सम्पूर्ण मानवता और वंश की उन्नति का कारण भी बनती है। गुरु का यह आशीर्वाद और प्रशंसा शिष्य के लिए एक अमूल्य प्रेरणा बन जाती है, जो उसे साधना के अंतिम सोपान तक ले जाती है।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

"You can read this blog in any language. All you need to do is click on the translate button provided at the top left corner of the page. By clicking it, you can read it in your preferred language."

आप इस ब्लॉग को किसी भी भाषा में पढ़ सकते हैं आपको बस इतना करना है कि पेज के ऊपर बायें हिस्से में ट्रांसलेट का बटन दिया गया है। आप उसे क्लिक कर के अपनी मनपसंद भाषा में इसे पढ़ सकते हैं।


Kindly follow, share, and support to stay deeply connected with the timeless wisdom of Vedanta. Your engagement helps spread this profound knowledge to more hearts and minds.

"For more information, please click the link below."

www.sadhanapath.in