"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 53वां श्लोक"
"स्व-प्रयत्नकी प्रधानता"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
ऋणमोचनकर्तारः पितुः सन्ति सुतादयः ।
बन्धमोचनकर्ता तु स्वस्मादन्यो न कश्चन ॥ ५३ ॥
अर्थ:-पिता के ऋण को चुकाने वाले तो पुत्रादि भी होते हैं, परन्तु भवबन्धन से छुड़ाने वाला अपने से भिन्न और कोई नहीं है।
पितृऋण से छुटकारा दिलाने के लिए पुत्र और अन्य संबंधी होते हैं, जो अपने कर्तव्य के अनुसार पिता के कर्ज को चुका सकते हैं। यह लौकिक ऋण होता है, जिसे पुत्र, परिवार या समाज भी किसी न किसी रूप में चुका सकता है। मनुष्य अपने जीवन में अनेक प्रकार के ऋणों से बंधा होता है – माता-पिता का ऋण, गुरु का ऋण, देवताओं का ऋण, समाज का ऋण। शास्त्रों में कहा गया है कि पुत्र के कर्तव्यों में यह प्रमुख है कि वह पिता का ऋण चुका दे, चाहे वह धन का ऋण हो या किसी यज्ञादि का ऋण। इसीलिए संतानों का महत्त्व भी शास्त्रों में बताया गया है कि वे पूर्वजों की परंपरा को आगे बढ़ाते हैं और उनके अपूर्ण कार्यों को पूर्ण करते हैं।
परंतु यह श्लोक जिस बंधन की बात कर रहा है, वह सामान्य कर्ज या सांसारिक ऋण नहीं है। यह भवबन्धन है, अर्थात अज्ञानरूपी जंजीर जो आत्मा को अविद्या में बांधे रहती है। यह बंधन अनादि काल से चला आ रहा है। यह वही बंधन है जो हमें पुनः पुनः जन्म और मृत्यु के चक्र में डालता है। इसे कोई दूसरा व्यक्ति हमारे लिए काट नहीं सकता। पुत्र, मित्र, गुरु, माता-पिता, यहाँ तक कि देवता भी केवल उपदेश दे सकते हैं, मार्ग बता सकते हैं। परंतु इस आत्मिक बन्धन का मोचन केवल स्वयं साधक के पुरुषार्थ और ज्ञान से ही संभव होता है। यह बन्धन बाहर का नहीं, मन के भीतर की भ्रांति है। इसलिए इसे कोई अन्य हटाने में समर्थ नहीं है।
अद्वैत वेदान्त के अनुसार यह बन्धन केवल मिथ्या है, अज्ञान का परिणाम है। जब तक हम स्वयं में ‘अहं कर्ता’, ‘अहं देह’ और ‘अहं जीव’ का विचार करते रहते हैं, तब तक यह बन्धन दृढ़ बना रहता है। जैसे सपना स्वप्नदृष्टा की अवस्था में ही सत्य प्रतीत होता है, वैसे ही यह संसारबन्धन आत्मज्ञान के अभाव में सत्य प्रतीत होता है। लेकिन जैसे ही आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को जान लेती है, यह बन्धन उसी क्षण कट जाता है। इस मोक्ष का उपाय केवल ज्ञान ही है। इस ज्ञान का आरंभ शास्त्र और गुरु से होता है, परंतु अन्तिम साधना और अनुभव स्वयं साधक को ही करना होता है।
इसलिए यहाँ आचार्य शंकर कहते हैं कि पिता का ऋण चुकाने में तो पुत्रादि सहायक हो सकते हैं, लेकिन इस भवबन्धन से मुक्ति में कोई अन्य हमारी जगह कुछ नहीं कर सकता। यह हमारी स्वानुभूति और आत्मसाधना का विषय है। दूसरों के प्रयास से केवल बाह्य प्रपंच का थोड़ा बहुत परिवर्तन हो सकता है, लेकिन अंतःकरण की जड़ अज्ञानता को जड़ से समाप्त करना साधक का ही काम है। गुरु कृपा से यह सहज हो सकता है, परंतु अन्त में उसे अपनाने वाला और आत्मसाक्षात्कार करने वाला साधक ही होता है। यही कारण है कि वेदांत में आत्मविमर्श, निरंतर चिन्तन और साक्षीभाव को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। यह श्लोक हमें यह स्मरण कराता है कि संसार में कोई भी सहारा हमें मुक्ति नहीं दिला सकता, जब तक हम स्वयं अपने भीतर जाग्रत होकर सत्य का साक्षात्कार नहीं कर लेते। यही मनुष्य जीवन की चरम साधना और अंतिम कर्तव्य है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!