"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 54वां श्लोक"
"स्व-प्रयत्नकी प्रधानता"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
मस्तकन्यस्तभारादेर्दुःखमन्यैर्निवार्यते
क्षुदादिकृतदुःखं तु विना स्वेन न केनचित् ॥ ५४॥
अर्थ:-जैसे सिर पर रखे हुए बोझे का दुःख और भी दूर कर सकते हैं, परन्तु भूख-प्यास आदि का दुःख अपने सिवा और कोई नहीं मिटा सकता।
यह श्लोक अद्वैत वेदान्त के अद्भुत ग्रंथ विवेकचूडामणि से लिया गया है, जिसमें शंकराचार्य जी ने उपमा के माध्यम से आत्मज्ञान की अनिवार्यता को स्पष्ट किया है। इसमें कहा गया है कि जैसे कोई व्यक्ति अपने सिर पर भारी बोझ लेकर चल रहा हो, तो उस बोझ को दूसरा व्यक्ति उतार कर उसे आराम दे सकता है, वैसे ही जीवन में कुछ दुःख ऐसे हैं जिन्हें दूसरों की सहायता से दूर किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, अगर कोई थकान या शारीरिक बोझ से दुःखी है, तो कोई मित्र या सहायक उस बोझ को उठाकर उस व्यक्ति को राहत प्रदान कर सकता है। यह सांसारिक कष्टों की तरह है, जिन्हें किसी हद तक बाहरी उपायों या दूसरों की मदद से कम किया जा सकता है।
परंतु कुछ दुःख ऐसे हैं जो केवल स्वयं के प्रयास से ही मिट सकते हैं। जैसे भूख और प्यास का अनुभव, यह भीतर से उत्पन्न होते हैं। चाहे कोई दूसरा व्यक्ति कितना ही आपके लिए अच्छा भोजन या जल लाकर रख दे, परंतु उसे स्वयं आपको ही ग्रहण करना होगा। कोई भी दूसरा व्यक्ति आपकी भूख को स्वयं खाकर समाप्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार, आत्मा की अज्ञानजन्य दुःख, जैसे मोह, अविद्या, असुरक्षा और मृत्यु का भय, ये सभी आंतरिक अवस्थाएं हैं, जिन्हें केवल अपने आत्मज्ञान और साधना से ही मिटाया जा सकता है।
शंकराचार्य जी इस उपमा से यह सिखाते हैं कि संसार में गुरु या शास्त्र की सहायता से ज्ञान का मार्ग दिखाया जा सकता है। वे भोजन की थाली की तरह ज्ञान सामने रख सकते हैं, लेकिन उसे पचाना, अपने भीतर अनुभव करना और उसकी तृप्ति प्राप्त करना साधक के अपने पुरुषार्थ पर निर्भर है। यह संकेत है कि ज्ञान का बोध कोई दूसरा आपके लिए नहीं कर सकता। जैसे भोजन के स्वाद का अनुभव दूसरों द्वारा नहीं हो सकता, वैसे ही आत्मा के स्वरूप का साक्षात्कार भी केवल स्वयं की साधना, विवेक, वैराग्य और ध्यान से ही संभव है।
यह श्लोक यह भी बताता है कि साधक को अपनी जिम्मेदारी स्वयं निभानी होगी। हम जीवन में कई बार दूसरों से अपेक्षा करते हैं कि वे हमारी समस्याओं को सुलझा देंगे। किंतु जब प्रश्न अपने भीतर जड़ जमाए अज्ञान का होता है, तब यह बोझ किसी और के उतारने से नहीं हटता। आत्मज्ञान के अभाव से उत्पन्न यह भूख-प्यास जब तक स्वयं उपयुक्त साधना से शांत नहीं होती, तब तक शांति और आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता।
अतः यह श्लोक हमें आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा देता है। यह सिखाता है कि यद्यपि गुरु अनमोल हैं, उनकी कृपा अत्यंत आवश्यक है, परंतु अंतिम साधना स्वयं करनी होती है। साधक को अपने भीतर उतरकर आत्मविचार, आत्मनिरीक्षण और निष्ठा से अभ्यास करना होगा। यह उपमा जीवन की गहन सच्चाई को सरल शब्दों में अभिव्यक्त करती है और हमें यह स्मरण कराती है कि कोई भी बाहरी सहायता केवल एक सीमा तक ही काम आती है। अंत में आत्मकल्याण का कार्य स्वयं को ही करना होगा। यही इस श्लोक का गहरा और अनुपम संदेश है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!