"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 55वां श्लोक"
"स्व-प्रयत्नकी प्रधानता"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
पथ्यमौषधसेवा च क्रियते येन रोगिणा।
आरोग्यसिद्धिर्दृष्टास्य नान्यानुष्ठितकर्मणा ॥ ५५॥
अर्थ:-जैसे जो रोगी पथ्य और औषध का सेवन करता है उसी को आरोग्य-सिद्धि होती देखी जाती है, किसी और के द्वारा किये हुए कर्मों से कोई नीरोग नहीं होता।
आदि शंकराचार्य इस श्लोक में एक अत्यंत महत्वपूर्ण सत्य को उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट कर रहे हैं। वे कहते हैं कि जैसे कोई रोगी स्वयं पथ्य यानी उचित आहार और औषध का सेवन करता है, तभी उसे रोग से मुक्ति मिलती है। दूसरे लोग उसके लिए चाहे कितनी ही क्रियाएं कर लें, यदि वह स्वयं औषध न ले, संयम न रखे, तो उसकी बीमारी दूर नहीं होती। इस उदाहरण को यदि हम साधना और आत्मज्ञान की प्रक्रिया पर लागू करें, तो यह अत्यंत गहन अर्थ प्रकट करता है। आत्मज्ञान और मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर भी यही नियम लागू होता है कि साधक को स्वयं प्रयास करना अनिवार्य है।
कोई भी गुरु, शास्त्र या शुभचिंतक साधक के लिए मार्गदर्शन, प्रेरणा और ज्ञान का संचार कर सकता है, लेकिन उसकी ओर से साधना नहीं कर सकता। जैसे कोई रोगी यदि औषधि को देखता ही रह जाए, उसके बारे में चर्चा करता रहे, परंतु उसे ग्रहण न करे, तो रोग यथावत बना रहता है, वैसे ही आत्मज्ञान की बातों को केवल पढ़ते, सुनते या सोचते रहने से जीवन्मुक्ति नहीं हो सकती। इसके लिए अपने अंतःकरण में वैराग्य, विवेक, श्रद्धा, ध्यान और स्वाध्याय का आचरण करना ही पड़ता है। यह किसी और की क्रिया से स्थानांतरित नहीं हो सकता।
यहाँ शंकराचार्य अत्यंत व्यावहारिक दृष्टांत दे रहे हैं। रोगी को स्वयं ही अपने स्वास्थ्य के लिए कटिबद्ध होना पड़ता है। यदि कोई और उसके लिए औषध खरीद लाए, या पथ्य बनाकर सामने रख दे, फिर भी यदि रोगी उसे ग्रहण न करे, तो उसकी निष्क्रियता ही उसके रोग को बनाए रखती है। इसी प्रकार साधक के लिए ज्ञानरूपी औषधि और वैराग्य, समाधि, आत्मविचार आदि पथ्य अनिवार्य हैं। इनका सेवन स्वयं करना पड़ता है। कोई दूसरा व्यक्ति कितना ही प्रिय हो, उसके अपने कर्म आपके लिए मोक्ष के साधन नहीं बन सकते।
इस दृष्टांत का गहन संकेत यह भी है कि मनुष्य को आत्मिक विकास और मोक्ष के लिए दूसरों पर निर्भर होने की प्रवृत्ति छोड़नी होगी। गुरु और शास्त्र दिशा दिखाते हैं, लेकिन यात्रा स्वयं ही करनी होती है। यह आध्यात्मिक अनुशासन का सार्वकालिक सिद्धांत है। अन्य कोई व्यक्ति, चाहे वह कितना ही समर्थ क्यों न हो, आपके बदले समाधि में नहीं बैठ सकता। इसी प्रकार आप अपने स्वभाव, वासनाओं, विकारों का नाश स्वयं ही कर सकते हैं। दूसरों द्वारा की गई पूजा, अनुष्ठान, यज्ञ आपके आत्मज्ञान की पूर्ति में तभी सहायक होते हैं, जब आप भीतर से स्वयं प्रयासरत हों।
इसलिए शंकराचार्य इस उदाहरण से साधक को सावधान करते हैं कि केवल बाह्याचार, वंश परंपरा या आडंबर से कोई लाभ नहीं। जैसे औषधि सेवन का लाभ तभी है जब रोगी उसे अपने मुख से ग्रहण करे, वैसे ही आत्मज्ञान का अनुभव तभी होगा जब साधक स्वयं भीतर का परिश्रम करे। इस श्लोक का मर्म यही है कि अपनी साधना, आत्मविचार और अभ्यास में स्वावलंबन ही असली शक्ति है। यही स्वानुभव अंततः आरोग्य और परम शांति की सिद्धि कराता है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!