"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 56वां श्लोक"
"स्व-प्रयत्नकी प्रधानता"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
वस्तुस्वरूपं स्फुटबोधचक्षुषा स्वेनैव वेद्यं ननु पण्डितेन ।
चन्द्रस्वरूपं निजचक्षुषैव ज्ञातव्यमन्यैरवगम्यते किम् ॥ ५६ ॥
अर्थ:-विवेकी पुरुष को वस्तु का स्वरूप भी स्वयं अपने ज्ञान-
नेत्रों से ही जानना चाहिये, किसी अन्य के द्वारा नहीं। चन्द्रमा का स्वरूप अपने ही नेत्रों से देखा जाता है, दूसरों के द्वारा क्या जाना जा सकता है?
यह श्लोक अद्वैत वेदांत के अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ विवेकचूडामणि का एक गहरा सूत्र है, जिसमें आत्मानुभूति की अनिवार्यता पर बल दिया गया है। इसमें शंकराचार्य स्पष्ट करते हैं कि सत्य या वस्तुस्वरूप का बोध किसी अन्य व्यक्ति के माध्यम से पूर्ण नहीं हो सकता। जैसे चन्द्रमा के स्वरूप को स्वयं अपनी आँखों से देखना पड़ता है, वैसे ही ब्रह्म या आत्मा का साक्षात्कार भी स्वानुभव से ही होता है। कोई अन्य व्यक्ति केवल संकेत कर सकता है, दिशा दिखा सकता है, परन्तु स्वयं देखे बिना चन्द्रमा का अनुभव नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार, वेद, शास्त्र, गुरु उपदेश, शास्त्रीय विवेचना—ये सब साधक को मार्ग दिखाने वाले साधन हैं, परंतु आत्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान अंततः साधक के अंतःकरण में ही उदित होता है।
शंकराचार्य इस उदाहरण द्वारा बताते हैं कि कोई कितना ही पंडित क्यों न हो, उसे स्वयं के ज्ञान-नेत्र खोलने होंगे। यदि कोई केवल दूसरों के कथन पर निर्भर रहता है, तो वह परोक्ष ज्ञान तक ही सीमित रहेगा, प्रत्यक्ष या साक्षात्कार से वंचित रहेगा। जैसे कोई व्यक्ति कहे कि “चन्द्रमा बहुत सुंदर है, उसमें कलाएँ हैं, उसकी ठंडी किरणें हैं,” यह सुनकर कोई चन्द्रमा की वास्तविक ठंडक और सौंदर्य का अनुभव नहीं कर सकता, जब तक कि वह स्वयं चन्द्रमा को न देख ले। यही बात आत्मज्ञान के संदर्भ में भी सत्य है। केवल शास्त्र सुनना, चर्चा करना या विचार करना पर्याप्त नहीं होता, बल्कि अपने अंतःकरण की आँख से देखना होता है। इस अंतःकरण की आँख का अर्थ है निर्मल चित्त, एकाग्र बुद्धि, और गहन आत्मनिरीक्षण।
इस श्लोक में 'वस्तुस्वरूप' शब्द का अर्थ है ब्रह्मस्वरूप या आत्मस्वरूप। यह कोई बाहरी वस्तु नहीं, बल्कि स्वयम् का शुद्ध अस्तित्व है। इसे जानना ही मोक्ष है। साधक को यह स्मरण रखना चाहिए कि गुरु का कार्य है चन्द्रमा की ओर संकेत करना, पर दृष्टि स्वयं अपनी खोलनी पड़ेगी। गुरु यह नहीं कर सकते कि उनकी दृष्टि को ही तुम्हारी दृष्टि बना दें। इसलिए कहा गया—“स्वेनैव वेद्यं”—केवल अपने ही अनुभव से जानना सम्भव है। यह आत्मज्ञान का स्वभाव है कि वह पराधीन नहीं होता, यह स्वानुभव से ही उद्भासित होता है। यही कारण है कि सभी उपनिषद आत्मानुभूति पर इतना बल देती हैं।
इस दृष्टि से विवेकचूडामणि का यह श्लोक साधक के भीतर आत्मनिष्ठा और गहन जिज्ञासा जगाने का आह्वान करता है। यह कहता है—हे विवेकी पुरुष! यदि तुम वास्तव में वस्तुस्वरूप को जानना चाहते हो, तो बाहरी प्रमाणों के सहारे तक ही सीमित मत रहो। स्वयं का मन निर्मल करो, अपने चित्त को प्रसन्न और एकाग्र करो, और अंतरात्मा में उतरकर साक्षात्कार करो। यही ज्ञान की परिपूर्णता है, और यही वास्तविक मुक्ति का द्वार है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!