"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 57वां श्लोक"
"स्व-प्रयत्नकी प्रधानता"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अविद्याकामकर्मादिपाशबन्धं कः विमोचितुम् ।
शक्नुयाद्विनात्मानं कल्पकोटिशतैरपि ॥ ५७ ॥
अर्थ:- अविद्या, कामना और कर्मादि के जाल के बन्धनों को सौ करोड़ कल्पों में भी अपने सिवा और कौन खोल सकता है?
यह श्लोक विवेकचूडामणि का अत्यन्त गहन और महत्त्वपूर्ण उपदेश देता है। इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जो जीव अविद्या अर्थात अज्ञान, कामना अर्थात इच्छाओं और कर्म अर्थात उनके फल की ग्रंथियों से बँधा हुआ है, उस परतंत्रता से उसे कोई दूसरा मुक्त नहीं कर सकता। चाहे अनन्त काल बीत जाएं—सौ करोड़ कल्प भी क्यों न निकल जाएं—फिर भी आत्मस्वरूप को जाने बिना यह बन्धन टूटने वाला नहीं है। श्लोक में कल्पकोटिशतैरपि शब्द का प्रयोग इस सत्य पर बल देने के लिए किया गया है कि समय के विस्तार से स्वतः मुक्ति नहीं हो जाती, बल्कि स्वयं ही अपने ज्ञान द्वारा इस अज्ञान-रूपी गाँठ को काटना पड़ता है।
अविद्या का अर्थ है अपने असली स्वरूप का न जानना। जब कोई यह भूल जाता है कि वह शुद्ध आत्मा है, सत-चित-आनन्दस्वरूप ब्रह्म है, तब वह देह और मन को ही अपना आत्मा मान लेता है। यही अज्ञान जीवन का मूल बन्धन है। इसी अज्ञान से कामनाएँ उत्पन्न होती हैं—विभिन्न विषयों के प्रति आसक्ति और तृष्णा। जब कामना जागृत होती है, तो मनुष्य कर्म में प्रवृत्त होता है। कर्म अच्छे हों या बुरे, वे पुनर्जन्म के कारण बनते हैं और जीव बन्धन के चक्र में फँसता जाता है। यह चक्र अनादिकाल से चल रहा है।
गुरु, शास्त्र, सद्संग और साधन सब इस मार्गदर्शन के लिए सहायक हैं, लेकिन अन्त में इस पाश को खोलने का कार्य स्वयं साधक को ही करना होगा। जैसे कोई व्यक्ति स्वयं उठ कर अपने पैरों से चलकर ही लक्ष्य तक पहुँच सकता है, वैसे ही आत्मसाक्षात्कार का पथ केवल आत्मानुभूति से पूर्ण होता है। कोई अन्य व्यक्ति आपकी ओर से भूख नहीं मिटा सकता, वैसे ही कोई अन्य आपके अज्ञान का अन्त नहीं कर सकता। ज्ञान किसी के मुख से सुन कर केवल श्रवण में रह जाए, तब तक वह मुक्ति का कारण नहीं बनता। उसे अन्तर्बोध में परिणत करना होता है।
शास्त्र कहते हैं कि अविद्या का नाश तभी होता है जब निरंतर आत्मचिन्तन और विवेक द्वारा अपने स्वरूप का बोध होता है। यही सच्चा साधन है। यदि कोई केवल बाहरी क्रिया–कलापों में, यज्ञ, तप, तीर्थ या पठन–पाठन में ही रत रहे, पर अपने भीतर जागरूकता न उत्पन्न करे, तो कल्पों तक यह अज्ञान बना रह सकता है। यह श्लोक साधक को एक स्पष्ट चेतावनी देता है कि “अपने सिवा दूसरा कोई मुक्तिदाता नहीं।”
यह आत्मदायित्व का बोध कराता है। यह बोध कि “मैं ही अपने अज्ञान के बन्धनों को काट सकता हूँ,” साधना का मूल है। साधक जब इसे जान कर मन, बुद्धि और अहंकार से परे अपने आत्मस्वरूप में स्थित होता है, तभी कामना–कर्म की ग्रंथियां गलती हैं। इसलिए विवेकचूडामणि में इतनी बार स्वानुभव पर बल दिया गया है। अन्त में वही साधक सफल होता है, जो साहसपूर्वक अपने भीतर उतर कर अपनी असली सत्ता का अनुभव कर लेता है और जान लेता है—“मैं साक्षी चैतन्य हूँ, न कि यह देह–मन।” यही अन्तिम मुक्ति है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!