"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 58वां श्लोक"
"आत्मज्ञान का महत्व"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
न योगेन न सांख्येन कर्मणा नो न विद्यया।
ब्रह्मात्मैकत्वबोधेन मोक्षः सिद्ध्यति नान्यथा ॥ ५८ ॥
अर्थ:-मोक्ष न योग से सिद्ध होता है, न सांख्य से, न कर्म से और न विद्या से । वह केवल ब्रह्मात्मैक्य-बोध (ब्रह्म और आत्मा की एकता के ज्ञान) से ही होता है और किसी प्रकार नहीं।
यह श्लोक हमें मोक्ष के विषय में अत्यंत गहन सत्य बताता है। इसमें कहा गया है कि न योग के द्वारा, न सांख्य के द्वारा, न कर्मकांड से और न ही सामान्य विद्या से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। यहाँ योग शब्द से आशय है साधारण योगाभ्यास – आसन, प्राणायाम, ध्यान आदि, जो शरीर और मन की शुद्धि में सहायक होते हैं, किंतु वे अंततः आत्मज्ञान को उत्पन्न नहीं कर सकते। सांख्य एक दार्शनिक मत है, जिसमें पुरुष और प्रकृति का भेद माना जाता है। सांख्य का विवेचन भी अंतिम अद्वैत बोध की ओर नहीं ले जाता, क्योंकि उसमें द्वैत ही बना रहता है। कर्मकांड – चाहे वेदविहित यज्ञ हों या पुण्यकर्म – केवल चित्तशुद्धि प्रदान करते हैं, परंतु अविद्या के मूल को समाप्त नहीं कर सकते। इसी प्रकार सामान्य विद्या – शास्त्राध्ययन, तर्क, विचार – यह सब बौद्धिक ज्ञान तक सीमित रह जाते हैं।
शास्त्रकार स्पष्ट करते हैं कि मोक्ष एकमात्र ब्रह्मात्मैकत्वबोध से ही संभव है। इसका अर्थ है – जब साधक यह प्रत्यक्ष अनुभव कर लेता है कि उसका आत्मा और ब्रह्म एक ही हैं, कोई भेद नहीं है, तब ही जन्म-मृत्यु का चक्र टूटता है और निर्वाण प्राप्त होता है। यह बोध केवल तात्त्विक तर्क या वाचन मात्र से प्राप्त नहीं होता, बल्कि गुरु के उपदेश, शास्त्र के अध्ययन और स्वध्यान से अंतःकरण में उत्पन्न होता है। इस बोध में स्पष्ट अनुभव होता है – ‘अहं ब्रह्मास्मि’, मैं वही ब्रह्म हूं जो सर्वत्र व्याप्त है।
यहाँ यह भी संकेत है कि यदि कोई साधक केवल योगाभ्यास में लीन रहेगा, चाहे कितने ही कठिन तप और संयम करे, परंतु जब तक उसका चित्त ब्रह्मात्मैकत्व के अनुभव में स्थिर नहीं होगा, तब तक वह सच्चे अर्थ में मुक्त नहीं हो सकता। इसी तरह, सांख्य विवेक से संसार का भेदज्ञान तो हो सकता है, पर अद्वैत का परम ऐक्यबोध उसमें नहीं आता। कर्मकांड में भी, चाहे कितनी यज्ञादि की पूर्णता हो, पर वह स्वर्ग आदि लोकों की प्राप्ति में सहायक होता है, मोक्ष में नहीं। सामान्य विद्या में भी शब्दज्ञान की प्रचुरता हो सकती है, पर आत्मसाक्षात्कार के अभाव में वह बंधन को ही पोषित करती है।
वास्तव में यह श्लोक वेदांत दर्शन का मूल संदेश देता है कि समस्त साधनों की अंतिम सिद्धि तभी है जब वे अंत में आत्म-ब्रह्म के ऐक्यबोध में ले जाएं। उपनिषदों में भी यही कहा गया – न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः। अर्थात न कर्म से, न संतानों से, न धन से – केवल त्याग (अविद्या का त्याग) से अमृतत्व मिलता है। यहाँ त्याग का आशय भी वस्तुओं के परित्याग से नहीं, अहंभाव और अज्ञान के परित्याग से है।
साधक के लिए यह श्लोक मार्गदर्शक है कि सभी साधन सहायक हैं, पर साध्य नहीं। उनकी चरम सिद्धि आत्मज्ञान में ही है। इसलिए सदैव यह स्मरण रखना चाहिए कि ब्रह्म और आत्मा की अभिन्नता का साक्षात्कार ही मोक्ष का कारण है – अन्य कोई उपाय या विकल्प नहीं।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!