"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 59वां, 60वां श्लोक"
"आत्मज्ञान का महत्व"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
वीणाया रूपसौन्दर्यं तन्त्रीवादनसौष्ठवम् । प्रजारञ्जनमात्रं तन्न साम्राज्याय कल्पते ॥ ५९ ॥
वाग्वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यानकौशलम् । वैदुष्यं विदुषां तद्वद्भुक्तये न तु मुक्तये ॥ ६० ॥
अर्थ:-जिस प्रकार वीणा का रूप-लावण्य तथा तन्त्री को बजाने का सुन्दर ढंग मनुष्यों के मनोरंजन का ही कारण होता है, उससे कुछ साम्राज्य की प्राप्ति नहीं हो जाती; उसी प्रकार विद्वानों की वाणी की कुशलता, शब्दों की धारावाहिकता, शास्त्र-व्याख्यान की कुशलता और विद्वत्ता भोग ही का कारण हो सकती हैं, मोक्ष का नहीं।
इन श्लोकों में आदिशंकराचार्यजी ने अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात कही है। वे बताते हैं कि बाहरी दिखावे और वाणी की चातुर्य से मनुष्य केवल संसार में प्रसिद्धि और सम्मान प्राप्त कर सकता है, परंतु आत्मज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति नहीं कर सकता। पहला उदाहरण वीणा का दिया गया है। वीणा का सौंदर्य—उसकी आकृति, उसमें जड़ित रत्न और उसकी साज-सज्जा—देखने में कितना ही मोहक क्यों न हो, पर उससे कोई राज्य या साम्राज्य नहीं मिल जाता। इसी प्रकार, कोई व्यक्ति वीणा को कितनी ही सुंदरता से क्यों न बजाए, कितनी ही मधुर धुनें निकाल ले, कितनों का ही हृदय प्रसन्न कर दे—वह केवल मनोरंजन का साधन होगा, उससे उसके जीवन की कोई अंतिम उपलब्धि नहीं हो जाएगी। संसार में बहुत से लोग संगीत, कला या वाणी के कौशल से जनता का मन मोह लेते हैं, पर उससे केवल क्षणिक रंजन होता है, स्थायी उपलब्धि या मोक्ष का मार्ग नहीं मिलता।
दूसरे श्लोक में यही बात वाणी, विद्वत्ता और शास्त्र-ज्ञान के संदर्भ में कही गई है। कोई व्यक्ति कितना ही बड़ा विद्वान हो, उसमें शास्त्रों के कितने ही श्लोक कंठस्थ हों, वह कितनी ही चतुराई से शास्त्रों का भाष्य और व्याख्या कर ले, कितने ही सुंदर शब्दों में अपनी बात कह दे—यह सब बातें केवल उसके विद्वान होने का प्रमाण देती हैं। यह उसके लिए भोग के साधन हो सकते हैं—प्रशंसा, मान-सम्मान, प्रसिद्धि, शिष्य, धन आदि। जैसे कोई बहुत बड़ा वक्ता अपनी भाषण-कला से लोगों को मंत्रमुग्ध कर लेता है और लोग उसकी प्रशंसा करते हैं, उसी प्रकार शास्त्र-व्याख्यान की चतुरता भी श्रोताओं को प्रसन्न कर सकती है। परंतु यह सब अंततः बाहरी जगत के लाभ ही देते हैं, आंतरिक मुक्ति का द्वार नहीं खोलते।
वास्तव में शास्त्र-ज्ञान और विद्वत्ता का अंतिम उद्देश्य आत्मसाक्षात्कार है। अगर वह साक्षात्कार नहीं हुआ, तो वह ज्ञान केवल स्मृति बनकर रह जाता है। कोई भी व्याकरण, मीमांसा, न्याय या वेदांत के तर्क जान लेने से आत्मा का अनुभव नहीं होता। ज्ञान का अर्थ है—अपने भीतर ब्रह्म की अनुभूति, अपनी वास्तविक सत्ता का प्रत्यक्ष बोध। जब तक यह अनुभव नहीं होता, तब तक वाणी की सारी चातुर्य और शास्त्रों का भंडार भी हमें बंधन से मुक्त नहीं कर सकता। इसे ही शंकराचार्यजी ने कहा—वैदुष्यं विदुषां तद्वद्भुक्तये न तु मुक्तये—विद्वानों की विद्वत्ता केवल भोग की सामग्री बनती है, मुक्ति की नहीं।
यहां एक गहरा संकेत भी छुपा है। विद्वान होना बुरा नहीं है। शास्त्र पढ़ना, उन्हें समझना आवश्यक भी है। परंतु यह साधन है, साध्य नहीं। अगर कोई व्यक्ति शास्त्र-पठन को ही अंतिम उपलब्धि मान ले, उसमें ही अहंकार और गौरव का भाव पाल ले, तो वह साधन से साध्य की ओर नहीं बढ़ता। उसका ज्ञान बोझ बन जाता है। जैसे किसी ने रास्ते का नक्शा तो हाथ में ले लिया, पर यात्रा प्रारंभ न की, तो नक्शा मात्र हाथ में रह जाएगा, मंज़िल तक नहीं पहुंचाएगा। इसी प्रकार, शब्दों की धारावाहिकता और व्याख्यान की प्रतिभा अगर आत्मचिंतन और साधना में न लगे, तो उनका कोई गहन परिणाम नहीं होता।
शास्त्र पढ़ना जरूरी इसलिए होता है कि वे हमें विचार में शुद्धि दें, विवेक पैदा करें और आत्मसाक्षात्कार की ओर उन्मुख करें। परंतु इन शास्त्रों को ही अंतिम सत्य मान कर उनके शब्दों में उलझ जाना आत्मा के अनुभव से दूर ले जाता है। ज्ञान की सच्ची परीक्षा है—क्या उससे भीतर का अज्ञान मिटा? क्या अहंकार और वासनाएं शिथिल हुईं? क्या आत्मा का बोध प्रकट हुआ? अगर नहीं, तो वह ज्ञान केवल बुद्धि-विलास है।
इसलिए इन श्लोकों का सार यह है कि शब्द-चातुर्य, कला-कौशल और व्याख्यान-विद्वत्ता साध्य नहीं हैं। इनसे केवल प्रतिष्ठा मिलती है, पर आत्मा का साक्षात्कार नहीं होता। वह तो एकांत साधना, अंतर्मुखी दृष्टि, और निरंतर आत्मविचार से ही होता है। जैसे वीणा की मधुरता और उसकी शोभा केवल लोगों को प्रसन्न करती है, पर कोई साम्राज्य नहीं दिलाती, वैसे ही शास्त्रों की सुंदर व्याख्या केवल सुनने वालों का मन बहलाती है, परंतु आत्ममुक्ति नहीं देती। इसी संकेत को हमें गहराई से आत्मसात करना चाहिए, ताकि हम साधनों में ही उलझ कर रह न जाएं, और साध्य की ओर आगे बढ़ सकें।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!