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रविवार, 20 जुलाई 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 61वां श्लोक"




"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 61वां श्लोक"

"आत्मज्ञान का महत्व"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

अविज्ञाते परे तत्त्वे शास्त्राधीतिस्तु निष्फला।
विज्ञातेऽपि परे तत्त्वे शास्त्राधीतिस्तु निष्फला ॥ ६१ ॥

अर्थ:-परमतत्त्व को यदि न जाना तो शास्त्राध्ययन निष्फल (व्यर्थ) ही है और यदि परमतत्त्व को जान लिया तो भी शास्त्राध्ययन निष्फल (अनावश्यक) ही है।

यह श्लोक विवेकचूडामणि का 61वां श्लोक है, जिसमें आदि शंकराचार्य अद्वैत वेदांत की अद्भुत और गहरी अंतर्दृष्टि को अत्यंत सरल शब्दों में प्रस्तुत करते हैं। इस श्लोक का भाव यह है कि परम तत्त्व का अनुभव ही वास्तविक उद्देश्य है, न कि केवल शास्त्रों का अध्यान या विद्वता का प्रदर्शन। शास्त्राध्ययन की उपयोगिता तभी तक है, जब तक साधक को सत्य का बोध नहीं हुआ है। यदि किसी ने परमात्मा, आत्मा और ब्रह्म की एकता का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया, तो चाहे उसने असंख्य शास्त्रों का अध्ययन कर लिया हो, वह अध्ययन व्यर्थ सिद्ध होता है, क्योंकि वह केवल बुद्धि और वाणी तक सीमित रहता है। इस स्थिति में शास्त्र एक मानचित्र के समान होते हैं, जो दिशा तो दिखाते हैं, परंतु स्वयं गंतव्य तक नहीं पहुंचाते।

शास्त्रों का उद्देश्य साधक को वास्तविकता की ओर प्रवृत्त करना है। वे यह बताते हैं कि आत्मा शरीर से भिन्न है, ब्रह्म ही सब कुछ है, और संसार माया है। लेकिन यदि साधक ने इस सत्य का प्रत्यक्ष अनुभव ही न किया हो, तो शास्त्रों का ज्ञान किताबी ज्ञान बनकर रह जाता है। यह उसी प्रकार है जैसे कोई व्यक्ति केवल नदियों के नक्शे देखकर ही जल के स्वाद की कल्पना करे, परंतु स्वयं कभी जल को न छुए, न पिए। इस दृष्टि से, अविज्ञाते परे तत्त्वे शास्त्राधीतिः निष्फला अर्थात परमतत्त्व को न जानने पर शास्त्राध्ययन केवल वाद-विवाद और अहंकार बढ़ाने का साधन बनता है।

दूसरी पंक्ति में, विज्ञातेऽपि परे तत्त्वे शास्त्राधीतिः निष्फला कहा गया है। इसका अर्थ है कि यदि साधक ने सत्य का प्रत्यक्ष अनुभव कर लिया है—अर्थात उसे यह निस्संदेह अनुभूति हो गई कि अहं ब्रह्मास्मि (मैं ही ब्रह्म हूं), तो उसके लिए शास्त्राध्ययन भी अनावश्यक हो जाता है। अब उसे न तो शास्त्रों में प्रमाण ढूंढने की आवश्यकता रहती है, न वाक्य-बद्ध ज्ञान की। आत्मानुभूति ही सर्वश्रेष्ठ प्रमाण बन जाती है। यह अवस्था उस व्यक्ति के समान है जो स्वयं चंद्रमा को प्रत्यक्ष देख चुका है, अब उसके लिए किसी और की बात या चंद्रमा के चित्र निरर्थक हो जाते हैं।

यहां पर शास्त्रों के प्रति अनादर नहीं, बल्कि उनकी सीमाओं की व्याख्या की गई है। शास्त्र साधक को ज्ञान की ओर प्रेरित करने का साधन हैं। उनका महत्व तब तक अत्यधिक है, जब तक साधक अज्ञान से ग्रसित है। जैसे सीढ़ी का उपयोग ऊंचाई पर चढ़ने के लिए किया जाता है, परंतु जब ऊंचाई पर पहुंच जाओ, तो सीढ़ी को छोड़ देना ही उचित होता है। यदि कोई व्यक्ति ज्ञान प्राप्ति के बाद भी केवल शास्त्राध्ययन में रत रह जाए, तो यह भी एक प्रकार की ग्रंथि (बंध) बन जाती है, जो पूर्ण मुक्ति में बाधक होती है।

शंकराचार्य यहां हमें यह संकेत देते हैं कि जीवन का अंतिम लक्ष्य परम तत्त्व का अनुभव है—न तो केवल विद्वता, न ही शब्दों का प्रदर्शन। यदि वह अनुभव नहीं है, तो सब व्यर्थ है। यदि वह अनुभव हो गया, तो भी बाहरी साधन व्यर्थ हो जाते हैं। यह श्लोक साधक को इस अंतरबोध की ओर प्रेरित करता है कि ज्ञान को आत्मसात करो, केवल संग्रह मत करो। ज्ञान को जीयो, केवल रटो मत। यही विवेक का सार है।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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