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सोमवार, 21 जुलाई 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 62वां श्लोक"



"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 62वां श्लोक"

"आत्मज्ञान का महत्व"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम् ।
अतः प्रयत्नाज्ञ्ज्ञातव्यं तत्त्वज्ञात्तत्त्वमात्मनः ॥ ६२ ॥

अर्थ:- शब्दजाल तो चित्त को भटकाने वाला एक महान् वन है, इसलिये किन्हीं तत्त्वज्ञानी महात्मा से प्रयत्नपूर्वक आत्मतत्त्व को जानना चाहिये।

श्री आदि शंकराचार्य द्वारा रचित विवेकचूडामणि के इस श्लोक में एक अत्यंत महत्वपूर्ण चेतावनी दी गई है जो साधक के आध्यात्मिक मार्गदर्शन में प्रकाश का कार्य करती है। इसमें कहा गया है कि "शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम्", अर्थात् शास्त्रों, भाषाओं, और वाद-विवादों का विशाल जाल एक महान् वन के समान है जो साधक के चित्त को भ्रमित कर देता है। यह शब्दों का जंगल बड़ा आकर्षक प्रतीत होता है—वेद, उपनिषद, शास्त्र, पुराण, तर्क, मीमांसा, भाष्य—all are filled with immense intellectual richness. लेकिन यही शब्दजाल यदि सही प्रकार से नहीं समझा गया, और यदि वह आत्मबोध की ओर न ले जाए, तो वह केवल मन को उलझाने वाला बन जाता है।

मानव बुद्धि को शब्दों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त होता है, परंतु शुद्ध आत्मबोध शब्दातीत है। केवल शब्दों में उलझ कर रह जाना और तर्क वितर्क में ही समय बिताना आत्मसाक्षात्कार से दूर कर देता है। इसलिए इस श्लोक में चेतावनी दी गई है कि शब्दों की यह भीड़ एक महारण्य है—एक ऐसा गहन जंगल जहाँ साधक दिशा भ्रमित हो सकता है, अपनी साधना से भटक सकता है। यह चित्त को इधर-उधर भटकाता है, जिससे साधक अपने लक्ष्य—आत्मसाक्षात्कार—से दूर होता जाता है।

इसीलिए श्लोक की दूसरी पंक्ति कहती है, "अतः प्रयत्नाज्ञ्ज्ञातव्यं तत्त्वज्ञात्तत्त्वमात्मनः"—इसलिए प्रयत्नपूर्वक किसी तत्त्वज्ञानी महापुरुष से आत्मतत्त्व को जानना चाहिए। यहाँ 'प्रयत्न' शब्द का प्रयोग विशेष अर्थ में हुआ है, जो यह बताता है कि यह कार्य सहज नहीं है। इसके लिए सतत प्रयास, श्रद्धा, विनय और विवेक की आवश्यकता होती है। साधक को यह जानना चाहिए कि केवल शास्त्रज्ञान, पठन-पाठन या शब्दों का संग्रह ही अंतिम लक्ष्य नहीं है। जब तक वह ज्ञान अनुभूति में परिवर्तित न हो, तब तक वह व्यर्थ है।

तत्त्वज्ञ महापुरुष वे होते हैं जिन्होंने अपने अनुभव से आत्मा और ब्रह्म का एकत्व जाना है। उन्होंने न केवल शास्त्र पढ़े हैं, बल्कि उस सत्य को जिया है। ऐसे गुरु के सान्निध्य में ही आत्मज्ञान की सम्भावना संभव होती है। उनके उपदेश केवल शब्द नहीं होते, वे स्वयं जीवंत प्रकाश के स्रोत होते हैं जो साधक के भीतर के अंधकार को मिटा सकते हैं। इसीलिए, आत्मतत्त्व को जानने के लिए महापुरुष की शरण लेना आवश्यक है, क्योंकि उन्होंने उस सत्य को अनुभूत किया है जो शास्त्रों के शब्दों के पार है।

इस श्लोक का मर्म यह है कि केवल भाषिक ज्ञान, शास्त्रीय शब्दजाल या तर्क की प्रचुरता आत्मबोध नहीं देती। आत्मा का बोध मौन, साधना, श्रद्धा और तत्त्वदर्शी गुरु के मार्गदर्शन से ही संभव है। यह हमें सतर्क करता है कि ज्ञान के नाम पर शब्दों की भीड़ में खोकर हम अपने वास्तविक लक्ष्य से भटक न जाएं। अतः साधक को चाहिए कि वह आडंबरों से हटकर, दिखावे और वाद-विवाद से दूर रहकर, सच्चे ज्ञान के लिए योग्य गुरु की शरण ले और प्रयासपूर्वक आत्मतत्त्व को जाने—यही इस श्लोक का सार है।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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