"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 63वां श्लोक"
"आत्मज्ञान का महत्व"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अज्ञानसर्पदष्टस्य ब्रह्मज्ञानौषधं विना।
किमु वेदैश्च शास्त्रैश्च किमु मन्त्रैः किमौषधैः ॥ ६३ ॥
अर्थ:-अज्ञानरूपी सर्प से धँसे हुए को ब्रह्मज्ञानरूपी ओषधि के बिना वेद से, शास्त्र से, मन्त्र से और औषध से क्या लाभ ?
अज्ञानी व्यक्ति उस मनुष्य के समान है जिसे किसी विषैले सर्प ने डस लिया हो। जैसे सर्पदंश का प्रभाव शीघ्रता से सम्पूर्ण शरीर में फैल जाता है और जीवन को संकट में डाल देता है, वैसे ही अज्ञान का विष भी जीव को संसार-सागर में डुबो देता है। यहाँ ‘अज्ञानसर्पदष्टस्य’ — अर्थात अज्ञानरूपी सर्प से डसे हुए जीव की अवस्था अत्यंत गंभीर बताई गई है। इस विष से केवल एक ही औषध काम करती है — ब्रह्मज्ञान। जब तक ब्रह्मज्ञानरूपी औषधि नहीं दी जाती, तब तक कितने ही वेदों का पाठ कर लिया जाए, शास्त्रों को रट लिया जाए, मंत्रों का जप कर लिया जाए, और बाह्य औषधियों का सेवन कर लिया जाए — कोई वास्तविक कल्याण संभव नहीं होता।
वेद, शास्त्र और मंत्र— ये सभी तभी उपयोगी सिद्ध होते हैं जब वे ब्रह्मज्ञान की ओर ले जाएँ। यदि इनका प्रयोग केवल पठन, श्रवण, या आडंबर के लिए हो रहा हो और आत्मतत्त्व की खोज न हो रही हो, तो यह उसी प्रकार है जैसे किसी रोगी को सही औषधि दिए बिना केवल औषधियों के नाम सुनाकर ठीक करने का प्रयास किया जाए। जैसे सर्पदंश के लिए केवल तात्कालिक और प्रभावी औषधि की आवश्यकता होती है, वैसे ही आत्मा पर छाये अज्ञान के अंधकार को दूर करने के लिए केवल आत्मज्ञान ही एकमात्र उपाय है।
यहाँ "ब्रह्मज्ञानौषधं विना" — इस वाक्यांश का तात्पर्य है कि बिना आत्मतत्त्व की प्रत्यक्ष अनुभूति के, केवल ग्रंथों का अध्ययन और अनुष्ठानों का पालन एक खोखली प्रक्रिया बन जाती है। अनेक लोग वेदों और शास्त्रों को बड़े श्रद्धा से पढ़ते हैं, मंत्रों का उच्चारण करते हैं, और धार्मिक औषधियों की तरह इनका सेवन करते हैं, परंतु यदि उनके भीतर विवेक नहीं जागा, यदि उन्होंने अपने भीतर आत्मा और ब्रह्म की एकता को नहीं जाना, तो उनका यह सब प्रयत्न उसी रोगी के समान हो जाता है जो गलत औषधियों से ही ठीक होने की आशा कर रहा हो।
इस श्लोक में यह भी संकेत है कि केवल ज्ञान ही मुक्ति का द्वार खोल सकता है। भक्ति, पूजा, जप, तप — ये सब साधन ब्रह्मज्ञान की सिद्धि में सहायक हो सकते हैं, किंतु जब तक अंतिम बोध नहीं होता, तब तक अज्ञान का विष समाप्त नहीं होता। आत्मज्ञान ही वह औषधि है जो इस विष का शमन करती है और जीव को जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त करती है।
अतः स्पष्ट है कि विवेकचूडामणि का यह श्लोक हमें उस मूल तथ्य की ओर इंगित करता है — कि आत्मा की मुक्ति केवल ब्रह्मज्ञान से ही संभव है। शास्त्र, वेद और मन्त्र यदि ब्रह्म की ओर ले जाने वाले नहीं हैं, तो वे किसी काम के नहीं। वे तभी सार्थक हैं जब वे जीव को अज्ञानरूपी सर्प के विष से मुक्त कर आत्मज्ञान की अमृत औषधि प्रदान करें।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!