"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 64वां श्लोक"
"अपरोक्षानुभव की आवश्यकता"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
न गच्छति विना पानं व्याधिरौषधशब्दतः । विनापरोक्षानुभवं ब्रह्मशब्दैर्न मुच्यते ॥ ६४ ॥
अर्थ:-औषध को बिना पिये केवल औषध-शब्द के उच्चारण मात्र से रोग नहीं जाता, इसी प्रकार अपरोक्षानुभव के बिना केवल 'ब्रह्म, ब्रह्म' कहने से कोई मुक्त नहीं हो सकता।
विवेकचूडामणि का यह श्लोक अत्यंत गूढ़ और आत्मज्ञान की वास्तविकता को उजागर करने वाला है। इसमें शंकराचार्य यह स्पष्ट करते हैं कि केवल शब्दों का ज्ञान, चाहे वे कितने भी पवित्र, महान या शास्त्रसम्मत क्यों न हों, आत्ममुक्ति का मार्ग नहीं है जब तक वह अनुभव में नहीं उतरता। जैसे कोई रोगी यदि केवल औषधि के नाम का उच्चारण करता रहे, 'औषधि, औषधि' कहता रहे, परंतु वास्तव में उसे ग्रहण न करे, तो उसका रोग कभी नहीं मिट सकता — उसी प्रकार कोई व्यक्ति केवल 'ब्रह्म, ब्रह्म' का जप करता रहे, शास्त्रों में ब्रह्मतत्त्व के बारे में पढ़ता रहे, व्याख्यान देता रहे, पर यदि उसका स्वयं का अनुभव उस ब्रह्म से प्रत्यक्ष नहीं हुआ है, तो वह वास्तव में मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता।
शंकराचार्य यहां दो बातों को बहुत ही सरल परंतु प्रभावशाली उपमा के माध्यम से समझा रहे हैं। पहली बात यह है कि शब्द मात्र से कोई वस्तु नहीं मिलती — चाहे वह सांसारिक हो या आध्यात्मिक। दूसरी बात यह है कि अनुभव के बिना कोई ज्ञान पूर्ण नहीं होता। जैसे कोई व्यक्ति यह कहे कि उसे मधुरता का अनुभव है लेकिन उसने कभी शहद चखा ही नहीं, तो वह अनुभव केवल कल्पना पर आधारित होगा, न कि यथार्थ पर। उसी प्रकार यदि ब्रह्म के विषय में हमने शास्त्रों से सुना, गुरुओं से सुना, प्रवचनों में भाग लिया, किंतु स्वयं अपने अंतर में ब्रह्म की अनुभूति नहीं की — तो वह ज्ञान केवल सैद्धांतिक है, व्यावहारिक नहीं।
ब्रह्मज्ञान का मूल स्वरूप "अपरोक्षानुभव" है — अर्थात प्रत्यक्ष, साक्षात, अनुभूत आत्मबोध। यह अनुभूति तभी होती है जब साधक मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार की परतों को पार करके 'स्व' में स्थित होता है। 'श्रवण', 'मनन' और 'निदिध्यासन' ये आत्मबोध की सीढ़ियाँ हैं, परंतु अंतिम सोपान 'अनुभव' ही है। शास्त्र का कार्य है दिशा दिखाना, संकेत देना — पर वह लक्ष्य नहीं है। लक्ष्य है आत्मा और ब्रह्म की एकता को स्वयं जानना, अनुभव करना। जैसे भोजन की थाली देखकर पेट नहीं भरता, उसी तरह ब्रह्मशब्दों को सुनने से आत्मा तृप्त नहीं होती।
इस श्लोक का निहितार्थ यह है कि आत्मज्ञान का मार्ग केवल बौद्धिक या वाचिक नहीं है; वह साधना, ध्यान, वैराग्य और अंतर्मुखता से ही प्राप्त होता है। ब्रह्मज्ञान कोई वस्तु नहीं कि उसे किसी और के माध्यम से पाया जा सके; यह स्वयं में स्थित सत्य है जिसे आवरण हटाकर ही जाना जा सकता है। जैसे सूर्य सदैव चमक रहा है लेकिन बादल उसे ढक लेते हैं, वैसे ही आत्मा का प्रकाश सदा विद्यमान है, परंतु अज्ञान, वासनाएँ, और विक्षेप के कारण वह अनुभूत नहीं होता।
अतः इस श्लोक में एक अत्यंत स्पष्ट संदेश है: केवल नाम जप, पाठ, या शास्त्र चर्चा से नहीं, बल्कि गहन आत्मसाधना से, मन की शुद्धि से, और ब्रह्म के प्रति सम्पूर्ण समर्पण से ही मुक्ति संभव है। ब्रह्म शब्दों से परे है, और उसका बोध भी शब्दातीत ही होता है। अतः सच्चा साधक वही है जो शब्दों से परे जाकर अनुभव की ओर बढ़ता है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!