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गुरुवार, 24 जुलाई 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 65वां श्लोक"


"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 65वां श्लोक"

"अपरोक्षानुभव की आवश्यकता"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

'विवेकचूडामणि' के इस श्लोक में आत्मज्ञान की प्रक्रिया और मुक्ति की वास्तविक शर्तों को अत्यंत स्पष्टता और तीव्रता के साथ प्रस्तुत किया गया है। श्लोक कहता है—

अकृत्वा दृश्यविलयमज्ञात्वा तत्त्वमात्मनः ।

बाह्यशब्दैः कुतो मुक्तिरुक्तिमात्रफलैर्नृणाम् ॥ ६५ ॥

अर्थ:- अर्थात्, जब तक दृश्य-जगत का विलय नहीं होता और आत्मा के तत्त्व का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता, तब तक केवल बाह्य शास्त्रीय शब्दों का उच्चारण करने मात्र से मनुष्य को मुक्ति कैसे मिल सकती है?

यहाँ "दृश्यविलय" का तात्पर्य उस सम्पूर्ण प्रत्यक्ष जगत से है जो हमारी इन्द्रियों के माध्यम से अनुभव होता है — यह संसार, इसका रूप, रंग, ध्वनि, रस, गंध, सुख-दुख, आकर्षण-विकार, ये सभी दृश्य हैं। आत्मज्ञान के मार्ग में जब तक साधक इन दृश्यों को सत्य मानकर उनसे आसक्त रहता है, तब तक वह ब्रह्मतत्त्व की पहचान नहीं कर सकता। दृश्य जगत की मिथ्यात्वबुद्धि अर्थात् इसे 'अस्थायी, परिवर्तनशील और अवास्तविक' मानकर इसकी पकड़ छोड़ देना ही दृश्यविलय है। जब यह विलय होता है, तब ही साधक की दृष्टि अंतर्मुखी होती है और वह आत्मतत्त्व की ओर अग्रसर होता है।

इसके पश्चात श्लोक कहता है — "अज्ञात्वा तत्त्वमात्मनः", अर्थात जब तक आत्मा का तत्त्व ज्ञात नहीं होता, तब तक कोई भी मुक्ति संभव नहीं। आत्मा का तत्त्व जानना, इसका अर्थ केवल बौद्धिक समझ नहीं है। यह प्रत्यक्षानुभव की बात है — वह अनुभव जिसमें साधक 'अहं ब्रह्मास्मि' को केवल विचार या विश्वास नहीं, बल्कि पूर्ण साक्षात्कार के रूप में जानता है। वह जानता है कि 'मैं शरीर, मन, बुद्धि नहीं हूँ, मैं वह चैतन्य आत्मा हूँ जो सदा एकरस, अपरिवर्तनीय, नित्य और शुद्ध है।'

तीसरी बात श्लोक में कही गई — "बाह्यशब्दैः कुतो मुक्ति?" — शास्त्र, वेद, उपनिषद् और अन्य ग्रंथों में अनेकों बार ब्रह्म, आत्मा, मुक्ति आदि शब्दों का वर्णन होता है। पर यदि साधक केवल इन शब्दों को सुनता है, दोहराता है, भाषण देता है, या तर्क-वितर्क करता है, लेकिन उसका अंतःकरण शुद्ध नहीं होता, उसकी वृत्तियाँ अंतर्मुखी नहीं होतीं और वह आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं करता — तो वह शब्द मात्र 'उक्तिमात्रफल' बनकर रह जाते हैं। वे केवल भाषण या विचार-विनोद का साधन बनते हैं, मुक्ति का नहीं।

यह श्लोक साधक को चेतावनी देता है कि केवल ज्ञान की बात करना या शब्दों में रटना आत्मज्ञान नहीं है। जब तक व्यावहारिक जीवन में वैराग्य, ध्यान, आत्मनिरीक्षण, तत्त्वचिन्तन और ब्रह्मनिष्ठा नहीं आती, तब तक मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। विवेकचूडामणि में शंकराचार्य बार-बार इस बात को दोहराते हैं कि शास्त्र का उद्देश्य केवल सूचना देना नहीं है, वह तो साधक को वहाँ तक ले जाना है जहाँ वह स्वयं उस तत्त्व का अनुभव कर सके जिसकी ओर शास्त्र संकेत करते हैं।

इस प्रकार इस श्लोक का सार यही है कि केवल ब्रह्म शब्द का उच्चारण, या केवल ग्रंथों का अध्ययन तब तक व्यर्थ है जब तक साधक दृश्य जगत की माया से मुक्त होकर आत्मा के स्वरूप को प्रत्यक्ष अनुभव न कर ले। यही अनुभव ही वास्तव में मुक्ति की कुंजी है — न कि केवल वाणी की चतुरता या बाह्य आडंबर।


ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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