"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 66वां श्लोक"
"अपरोक्षानुभव की आवश्यकता"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
यह श्लोक विवेकचूड़ामणि के गहन शिक्षाप्रद श्लोकों में से एक है, जो आत्मसाक्षात्कार की आवश्यकता और केवल शब्दों की निरर्थकता को अत्यंत प्रभावशाली रूप से दर्शाता है। श्लोक कहता है:
अकृत्वा शत्रुसंहारमगत्वाखिलभूश्रियम् ।
राजाहमिति शब्दान्नो राजा भवितुमर्हति ॥ ६६ ॥
अर्थ:-जो व्यक्ति न तो अपने शत्रुओं का संहार करता है और न ही सम्पूर्ण पृथ्वी के ऐश्वर्य को प्राप्त करता है, वह केवल 'मैं राजा हूँ' ऐसा कह देने से राजा नहीं हो सकता।
यहाँ 'राजा' शब्द एक प्रतीक है—बाह्य रूप से नहीं, बल्कि आन्तरिक विजय और आत्मबोध के प्रतीक रूप में। जिस प्रकार किसी व्यक्ति के द्वारा केवल यह कह देने से कि "मैं राजा हूँ", वह वास्तव में राजा नहीं बन जाता, जब तक कि वह अपने शत्रुओं को पराजित न कर दे और पृथ्वी पर राज्य न स्थापित कर ले, उसी प्रकार केवल 'मैं आत्मा हूँ', 'मैं ब्रह्म हूँ', 'अहं ब्रह्मास्मि' जैसे शास्त्रीय वाक्यों का उच्चारण कर देने से आत्मज्ञान या मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। जब तक साधक अपने भीतर उपस्थित शत्रुओं—अविद्या, राग, द्वेष, मोह, अहंकार, वासना और कर्मबन्धन—का संहार नहीं करता, तब तक वह आत्मराज्य का अधिकारी नहीं बन सकता।
आध्यात्मिक साधना में हमारे सबसे बड़े शत्रु हमारे ही भीतर स्थित हैं। ये शत्रु हैं—मिथ्या अहंकार, इन्द्रियविषयों में आसक्ति, कामना और क्रोध। जब तक ये अन्तर्मन में सक्रिय रहते हैं, तब तक 'मैं आत्मा हूँ' कहने से कोई फल नहीं होता। यह ठीक वैसा ही है जैसे कोई व्यक्ति अपने को 'धनवान' कहता रहे, पर वास्तव में उसके पास एक पैसा भी न हो। शब्दों का प्रयोग तब ही सार्थक होता है जब वे अनुभव से जुड़ा हो।
इस श्लोक का मर्म यह भी है कि केवल शास्त्रों का पठन, शुद्ध वाणी का प्रयोग या धार्मिक भाषा में बोलना आत्मबोध की गारंटी नहीं है। यह सब तब तक व्यर्थ है जब तक कि आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव न हो, आत्मविकास की यात्रा पूरी न हो, और भीतर स्थित अज्ञान का विनाश न हो। जिस प्रकार एक राजा के लिए शत्रु को परास्त करना आवश्यक है, उसी प्रकार आत्मज्ञानी के लिए अपने चित्त को वश में करना और द्वैतबुद्धि का अंत करना आवश्यक है।
विवेकचूड़ामणि का यह श्लोक साधकों को स्पष्ट रूप से यह चेतावनी देता है कि केवल ज्ञान की बातें करना पर्याप्त नहीं है; ज्ञान को जीवन में उतारना, उसे अनुभूत करना और उस पर आधारित होकर जीना ही सच्चा आत्मज्ञान है। जैसे बाह्य विश्व पर अधिकार स्थापित करने के लिए बाह्य प्रयास आवश्यक हैं, वैसे ही आत्मज्ञान के लिए आन्तरिक साधना—विवेक, वैराग्य, शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधि—अत्यावश्यक है। बिना आत्मविजय के, बिना ब्रह्मसाक्षात्कार के केवल 'मैं मुक्त हूँ' कह देने से कोई मुक्त नहीं हो सकता।
इस प्रकार यह श्लोक हमें आत्मबोध के पथ पर दृढ़ साधना, आन्तरिक शत्रुओं से युद्ध और वास्तविक अनुभूति की अनिवार्यता का बोध कराता है। यह बताता है कि मोक्ष कोई भाषण की वस्तु नहीं है, बल्कि वह अनुभव की, साधना की और आत्मविजय की उपलब्धि है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!