"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 67वां श्लोक"
"अपरोक्षानुभव की आवश्यकता"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
आप्तोक्तिं खननं तथोपरिशिलाद्युत्कर्षणं स्वीकृतिं निक्षेपः समपेक्षते न हि बहिः शब्दैस्तु निर्गच्छति ।
तद्वद् ब्रह्मविदोपदेशमननध्यानादिभिर्लभ्यते मायाकार्यतिरोहितं स्वममलं तत्त्वं न दुर्युक्तिभिः ॥ ६७ ॥
अर्थ:-पृथ्वी में गड़े हुए धन को प्राप्त करने के लिये जैसे प्रथम किसी विश्वसनीय पुरुष के कथन की और फिर पृथिवी को खोदने, कंकड़-पत्थर आदि को हटाने तथा प्राप्त हुए धन को स्वीकार करने की आवश्यकता होती है-कोरी बातों से वह बाहर नहीं निकलता, उसी प्रकार समस्त मायिक-प्रपंच से शून्य निर्मल आत्मतत्त्व भी ब्रह्मवित् गुरु के उपदेश तथा उसके मनन और निदिध्यासनादि से ही प्राप्त होता है, थोथी बातों से नहीं।
जैसे किसी गुप्त खजाने को प्राप्त करने के लिए केवल उसके अस्तित्व की बात जान लेना पर्याप्त नहीं होता, उसी प्रकार आत्मतत्त्व की प्राप्ति के लिए भी केवल शास्त्रों के वाक्य सुन लेना या ब्रह्म शब्द का उच्चारण कर लेना ही पर्याप्त नहीं है। गुप्त धन को पाने के लिए पहले किसी विश्वसनीय व्यक्ति की बात पर विश्वास करना पड़ता है, फिर उस स्थान की खुदाई करनी पड़ती है, मिट्टी, कंकड़ और पत्थरों को हटाना पड़ता है, और अंत में जो धन प्राप्त होता है, उसे स्वीकार करना पड़ता है। इसी क्रम को आदि शंकराचार्य ने आत्मसाक्षात्कार के मार्ग के रूपक के रूप में प्रस्तुत किया है।
ब्रह्मतत्त्व को जानने के लिए भी प्रथम किसी ब्रह्मविद् गुरु की वाणी पर श्रद्धा रखनी पड़ती है, जो स्वयं आत्मसाक्षात्कार कर चुका हो। उसकी वाणी केवल शब्द नहीं होती, वह अनुभव की गहराई से निकलती है। उसके बाद साधक को शास्त्रों के निर्देशानुसार ‘श्रवण’ करना होता है – जो गुरु के माध्यम से ब्रह्म के सत्य स्वरूप को जानने का पहला चरण है। लेकिन यह श्रवण केवल प्रारंभ है; इसके बाद ‘मनन’ का कार्य है, जिसमें प्राप्त ज्ञान में जो तर्क से विरोधाभास प्रतीत होते हैं, उन्हें गुरु और शास्त्रों की सहायता से दूर किया जाता है। फिर आता है ‘निदिध्यासन’, अर्थात उस सत्य पर निरन्तर ध्यान, चिंतन और अंतर्मन में उसी को प्रतिष्ठित करना।
यह सम्पूर्ण प्रक्रिया ऐसे ही है जैसे किसी स्थान पर छिपे धन की खोज करना। केवल यह कह देना कि वहाँ धन है, उससे धन प्रकट नहीं हो जाता; और न ही कोई दूसरा व्यक्ति उसे हमारे लिए निकाल सकता है। साधक को स्वयं परिश्रम करना पड़ता है, स्वयं प्रयत्नपूर्वक भूमि को खोदना पड़ता है। इसी प्रकार मायिक संसार, अर्थात जो कुछ भी इन्द्रियों और मन के द्वारा अनुभूत होता है – वह आत्मतत्त्व को छिपा देता है। उस माया के आवरण को हटाना पड़ता है। माया के कंकड़-पत्थर – कामना, वासना, अहंकार, भोगासक्ति – ये सभी बाधाएँ हैं जिन्हें हटाना आवश्यक है।
यह आत्मतत्त्व स्वयं में निर्मल है, अमल है, परंतु माया के कारण वह दृष्टिगोचर नहीं होता। यह न तो युक्तियों से जाना जा सकता है, न ही विवादों और शास्त्रार्थों से। थोथी तर्क-वितर्क या केवल पांडित्य से ब्रह्मज्ञान नहीं प्राप्त होता, क्योंकि वे सब मानसिक खेल बनकर रह जाते हैं। जब तक साधक स्वयं अपने अंतःकरण को शुद्ध नहीं करता, और गुरु के उपदेशों को पूर्ण श्रद्धा, मनन और ध्यान द्वारा आत्मसात नहीं करता, तब तक वह आत्मा का साक्षात्कार नहीं कर सकता।
इसलिए यहाँ यह श्लोक एक महत्वपूर्ण शिक्षा देता है – ब्रह्मविद्या कोई बौद्धिक सिद्धांत नहीं है, जिसे वाक्पटुता से अर्जित किया जा सके। यह तो एक गहन अंतःप्रयास है, जिसमें श्रद्धा, गुरु, मनन, ध्यान, और आंतरिक शुद्धि सभी आवश्यक हैं। जैसे खजाना बाहरी प्रयत्न से प्राप्त होता है, वैसे ही आत्मतत्त्व भी भीतरी प्रयत्न और तपस्या से प्राप्त होता है – और वह तभी संभव है जब माया के समस्त परदे हट जाएँ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!