"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 68वां श्लोक"
"अपरोक्षानुभव की आवश्यकता"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन भवबन्धविमुक्तये ।
स्वैरेव यत्नः कर्तव्यो रोगादाविव पण्डितैः ॥ ६८ ॥
अर्थ:-इसलिये रोग आदि के समान भव-बन्ध की निवृत्ति के लिये विद्वान् को अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर स्वयं ही प्रयत्न करना चाहिये।
इस श्लोक में आद्यात्मिक मुक्ति की प्रक्रिया को अत्यंत व्यावहारिक और प्रेरक रूप में प्रस्तुत किया गया है। शंकराचार्य कहते हैं कि जैसे कोई विद्वान व्यक्ति किसी रोग से छुटकारा पाने के लिए स्वयं प्रयास करता है, उसी प्रकार संसार के बंधन से मुक्त होने के लिए भी प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं ही संपूर्ण प्रयत्न करना चाहिए। यह श्लोक स्पष्ट करता है कि आत्ममोक्ष की यात्रा किसी और के भरोसे नहीं की जा सकती — यह एक ऐसी साधना है, जो व्यक्ति को स्वयं ही करनी पड़ती है।
'तस्मात्सर्वप्रयत्नेन' का अर्थ है – 'इसलिए समस्त प्रयत्नों के साथ'। इसका आशय यह है कि केवल सतही प्रयास या बाहरी आडंबरों से मुक्ति संभव नहीं। मोक्ष के लिए जीवन के हर स्तर पर, हर क्षण सजग होकर, सम्पूर्ण लगन और समर्पण से प्रयास करना आवश्यक है। आत्मज्ञान की प्राप्ति कोई तात्कालिक उपलब्धि नहीं, यह निरन्तर साधना, विवेक, वैराग्य, शम, दम आदि के अभ्यास का फल है।
शंकराचार्य इस श्लोक में 'भवबन्ध' की चर्चा करते हैं। ‘भव’ अर्थात जन्म और मृत्यु का चक्र, और ‘बन्ध’ अर्थात बन्धन। यह संसाररूपी बन्धन, जो अज्ञान, कामना और कर्म के कारण उत्पन्न होता है, वही पुनर्जन्म का कारण बनता है। यह बन्धन केवल बाहरी क्रियाकलापों से नहीं टूटता, अपितु इसके लिए आत्मतत्त्व की साक्षात अनुभूति आवश्यक है। और यह अनुभूति केवल तब सम्भव है जब साधक स्वयं गंभीरता से साधना करे।
शंकराचार्य इसे रोग के उदाहरण से समझाते हैं — 'रोगादाविव' — जैसे कोई व्यक्ति जब रोगग्रस्त होता है, तो वह स्वयं उपचार करवाने जाता है, औषधि लेता है, परहेज़ करता है और स्वस्थ जीवन शैली अपनाता है। वह केवल यह कह कर नहीं बैठ जाता कि कोई दूसरा उसे स्वस्थ कर देगा। इसी प्रकार आत्मा पर अज्ञान का जो रोग है, उससे छुटकारा पाने के लिए भी स्वयं को ही उपाय करने होंगे। कोई गुरु, कोई शास्त्र, कोई मंत्र, कोई देवता तब तक सहायक नहीं हो सकते जब तक साधक स्वयं प्रयास नहीं करता।
'स्वैरेव यत्नः कर्तव्यो' — स्वयं ही प्रयत्न करना चाहिए। यह 'स्वायत्तता' का सन्देश है। आत्मज्ञान की प्राप्ति का भार पूर्णतः साधक के कंधों पर है। गुरु और शास्त्र मार्गदर्शक हो सकते हैं, पर चलना स्वयं को ही होता है। यह श्लोक आत्मदायित्व (self-responsibility) की भावना को प्रगाढ़ करता है।
इस प्रकार यह श्लोक हमें एक गहरी चेतना देता है कि आत्म-मुक्ति की प्राप्ति केवल तभी संभव है जब हम अपने प्रयासों के प्रति पूर्ण रूप से जागरूक और समर्पित हों। यह हमें प्रमाद, आलस्य और परनिर्भरता से निकालकर आत्मसाधना की दिशा में अग्रसर करता है। यही ज्ञान की वास्तविक शुरुआत है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!