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सोमवार, 28 जुलाई 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 69वां श्लोक"


"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 69वां श्लोक"

"प्रश्न विचार"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

यस्त्वयाद्य कृतः प्रश्नो वरीयाञ्छास्त्रविन्मतः ।
सूत्रप्रायो निगूढार्थो ज्ञातव्यश्च मुमुक्षुभिः ॥ ६९ ॥

अर्थ:-तूने आज जो प्रश्न किया है, शास्त्रज्ञ जन उसको बहुत श्रेष्ठ मानते हैं। वह प्रायः सूत्ररूप (संक्षिप्त) है, तो भी गम्भीर अर्थयुक्त और मुमुक्षुओं के जानने योग्य है।

तूने आज जो प्रश्न किया है, वह अत्यन्त सराहनीय और गम्भीर है। विवेकचूडामणि के इस श्लोक में आचार्य शंकर भाविष्य को संबोधित करते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि जो प्रश्न मुमुक्षु ने किया है, वह साधारण नहीं है। इस प्रश्न की महत्ता को समझते हुए शंकराचार्य कहते हैं कि यह प्रश्न शास्त्रों के ज्ञाता, विद्वानों द्वारा भी श्रेष्ठ माना जाता है। इसका कारण यह है कि यह प्रश्न केवल शब्दों का समूह नहीं है, बल्कि यह आत्मज्ञान की जिज्ञासा से उत्पन्न हुआ है — और ऐसी जिज्ञासा ही मुक्ति की ओर पहला कदम होती है।

यह प्रश्न सूत्रप्राय है — अर्थात संक्षिप्त है, परन्तु उसमें गहन अर्थ छिपा हुआ है। जैसे उपनिषदों और ब्रह्मसूत्रों में कम शब्दों में अत्यन्त गूढ़ तत्वों की व्याख्या की गई है, वैसे ही इस प्रश्न में भी केवल सतही उत्तर से संतोष नहीं किया जा सकता। इसका उत्तर तभी समझ में आता है जब साधक के पास तत्त्वचिंतन की क्षमता, गुरु की कृपा और आत्मबोध की तीव्र इच्छा हो। इसलिए यह प्रश्न केवल बौद्धिक अभ्यास के लिए नहीं, अपितु आत्म-साक्षात्कार की दिशा में एक महत्वपूर्ण संकेतक है।

शंकराचार्य यह भी कहते हैं कि यह प्रश्न 'मुमुक्षुभिः ज्ञातव्यः' है — अर्थात जो व्यक्ति मोक्ष की तीव्र आकांक्षा रखते हैं, उनके लिए इस प्रश्न का उत्तर जानना आवश्यक है। ऐसा प्रश्न केवल जिज्ञासा के लिए नहीं, बल्कि साधना के पथ को स्पष्ट करने के लिए उठाया गया है। यह दिखाता है कि प्रश्नकर्ता में केवल ज्ञान पाने की इच्छा नहीं है, बल्कि वह अपने जीवन की दिशा तय करना चाहता है; वह जानना चाहता है कि बन्धन से मुक्ति कैसे प्राप्त की जा सकती है।

यहाँ यह भी समझना आवश्यक है कि शंकराचार्य इस प्रकार के प्रश्नों को केवल प्रशंसा की दृष्टि से नहीं देखते, बल्कि उन्हें आत्मसाक्षात्कार की दिशा में एक योग्यता मानते हैं। एक ऐसा प्रश्न जो आत्मतत्त्व को जानने की तीव्र इच्छा से उपजा हो, वह स्वयं में ही साधक की अंतर्निहित तैयारी और विवेक को प्रकट करता है। इसलिए गुरु के लिए यह संकेत होता है कि शिष्य अब सुनने, मनन करने और निदिध्यासन करने के लिए उपयुक्त है।

इस श्लोक का गूढ़ संदेश यही है कि प्रश्न केवल उत्तर पाने का माध्यम नहीं है, बल्कि वह साधक की प्रगति का सूचक है। जब प्रश्न आत्मतत्त्व के बारे में होता है और मुमुक्षु भाव से पूछा जाता है, तब वह साधना के मार्ग को प्रशस्त करता है। ऐसे प्रश्नों के उत्तर भी तभी सार्थक होते हैं जब शिष्य में श्रवण, मनन और ध्यान की तत्परता हो। अतः यह श्लोक एक ओर जहाँ शिष्य के विवेक की सराहना करता है, वहीं दूसरी ओर गुरु को भी उत्तर देने हेतु प्रेरित करता है कि अब समय आ गया है जब ब्रह्मविद्या का बीज बोया जाए, क्योंकि भूमि तैयार हो चुकी है।

!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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